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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 219
ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ, मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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दू꣣रा꣢दि꣣हे꣢व꣣ य꣢त्स꣣तो꣢ऽरु꣣ण꣢प्सु꣣र꣡शि꣢श्वितत् । वि꣢ भा꣣नुं꣢ वि꣣श्व꣡था꣢तनत् ॥२१९॥

स्वर सहित पद पाठ

दू꣣रा꣢त् । दुः꣣ । आ꣢त् । इ꣣ह꣢ । इ꣣व । य꣢त् । स꣣तः꣢ । अ꣣रुण꣡प्सुः꣢ । अ꣡शि꣢꣯श्वितत् । वि । भा꣣नु꣢म् । वि꣣श्व꣡था꣢ । अ꣣तनत् । ॥२१९॥


स्वर रहित मन्त्र

दूरादिहेव यत्सतोऽरुणप्सुरशिश्वितत् । वि भानुं विश्वथातनत् ॥२१९॥


स्वर रहित पद पाठ

दूरात् । दुः । आत् । इह । इव । यत् । सतः । अरुणप्सुः । अशिश्वितत् । वि । भानुम् । विश्वथा । अतनत् । ॥२१९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 219
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(अरुणप्सुः) आरोचमानरूप जिसका है ऐसा इन्द्र—परमात्मा “प्सुः-रूपनाम” [निघं॰ ३.७] “वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णम्” [यजु॰ ३१.१८] (दूरात्) दृष्टिपथ से दूर होते हुए (इह-इव) यहीं समीप सा होकर हृदय में या अन्तरात्मा में होकर (यत्) यदा—जब (सतः) सत्पुरुषों—उपासकों को (अशिश्वितत्) रञ्जित कर देता है “श्विता वर्णें” [भ्वादि॰] तब (विश्वथा) सब प्रकार से (भानुम्) ज्ञानप्रकाश को (वि-अतनत्) विशेष रूप से फैलाता—बढ़ाता है।

भावार्थ - सूर्यसमान आरोचमानरूप वाला परमात्मा दृष्टि से दूर होकर भी समीप सा हृदय में अन्तरात्मा में जब सत्पुरुषों उपासकों को रञ्जित कर देता है तब सब प्रकार ज्ञानप्रकाश को विशेषरूप से फैला देता है—बढ़ा देता है॥६॥

विशेष - ऋषिः—ब्रह्मातिथिः (ब्रह्म—परमात्मा में निरन्तर गति रखने वाला उपासक)॥<br>

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