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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 256
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ पू꣣र्व꣡पी꣢तय꣣ इ꣢न्द्र꣣ स्तो꣡मे꣢भिरा꣣य꣡वः꣢ । स꣣मीचीना꣡स꣢ ऋ꣣भ꣢वः꣣ स꣡म꣢स्वरन्रु꣣द्रा꣡ गृ꣢णन्त पू꣣र्व्य꣢म् ॥२५६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । पूर्व꣡पी꣢तये । पू꣣र्व꣢ । पी꣣तये । इ꣡न्द्र꣢꣯ । स्तो꣡मे꣢꣯भिः । आ꣣य꣡वः꣢ । स꣣मीचीना꣡सः꣢ । स꣣म् । ईचीना꣡सः꣢ । ऋ꣣भ꣡वः꣢ । ऋ꣣ । भ꣡वः꣢꣯ । सम् । अ꣣स्वरन् । रुद्राः꣢ । गृ꣣णन्त पूर्व्य꣢म् ॥२५६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा पूर्वपीतय इन्द्र स्तोमेभिरायवः । समीचीनास ऋभवः समस्वरन्रुद्रा गृणन्त पूर्व्यम् ॥२५६॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । त्वा । पूर्वपीतये । पूर्व । पीतये । इन्द्र । स्तोमेभिः । आयवः । समीचीनासः । सम् । ईचीनासः । ऋभवः । ऋ । भवः । सम् । अस्वरन् । रुद्राः । गृणन्त पूर्व्यम् ॥२५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 256
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (त्वा पूर्व्यम्-अभि) तुझे पूर्वतः सृष्टि से पूर्व में भी वर्तमान या श्रेष्ठों में श्रेष्ठ को लक्ष्य कर (पूर्वपीतये) तेरे उपासक अपने अपने उपासनारस को पृथक् पान कराने स्वीकराने के लिये या तेरा दर्शनामृत प्रथम पान करने के लिये (स्तोमेभिः) विविध स्तुति वचनों से (आयवः) जन प्रार्थी जन “आयवः-मनुष्याः” [निघं॰ २.३] (समीचीनासः-ऋभवः) सम्यक् गति वाले मेधावी लोग “ऋभुः-मेधाविनाम” [निघं॰ ३.१५] (समस्वरन्) संशब्द-संस्तवन निरन्तर स्तुत करते हैं (रुद्राः-गृणन्त) स्तोता—उपासक जन “रुद्रः स्तोता” [निघं॰ ३.१६] गुणगण वर्णन करते हैं।
भावार्थ - परमात्मन्! तुझे अपने अपने उपासनारस को पृथक् पान कराने स्वीकराने के लिये या तेरे दर्शनामृत प्रथम पान करने के लिए तेरे तीन प्रकार मानने वाले प्रार्थी जन सम्यग् गति वाले स्तुति करने वाले मेधावी महानुभाव तथा उपासना करने वाले जीवन्मुक्त तेरी अर्चना गुणगान करते हैं हम भी उन्हीं तीनों में तेरी उपासना कर अमृत को सेवन करे॥४॥
विशेष - ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से अतन प्रवेश शील उपासक)॥<br>
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