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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 257
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣢ व꣣ इ꣡न्द्रा꣢य बृह꣣ते꣡ मरु꣢꣯तो꣣ ब्र꣡ह्मा꣢र्चत । वृ꣣त्र꣡ꣳ ह꣢नति वृत्र꣣हा꣢ श꣣त꣡क्र꣢तु꣣र्वज्रेण श꣣त꣡प꣢र्वणा ॥२५७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । वः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । बृ꣣हते꣢ । म꣡रु꣢꣯तः । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । अ꣣र्चत । वृत्र꣢म् । ह꣢नति । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । श꣣त꣡क्र꣢तुः । श꣣त꣢ । क्र꣣तुः । व꣡ज्रे꣢꣯ण । श꣣त꣡प꣢र्वणा । श꣣त꣢ । प꣣र्वणा ॥२५७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र व इन्द्राय बृहते मरुतो ब्रह्मार्चत । वृत्रꣳ हनति वृत्रहा शतक्रतुर्वज्रेण शतपर्वणा ॥२५७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । वः । इन्द्राय । बृहते । मरुतः । ब्रह्म । अर्चत । वृत्रम् । हनति । वृत्रहा । वृत्र । हा । शतक्रतुः । शत । क्रतुः । वज्रेण । शतपर्वणा । शत । पर्वणा ॥२५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 257
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(मरुतः) हे अध्यात्म यज्ञ के याजक उपासक जनो! “मरुतः-ऋत्विङ् नामसु” [निघं॰ ३.१८] (वः) ‘यूयम्’ ‘विभक्तिव्यत्ययः’ तुम (बृहते-इन्द्राय) महान् परमात्मा के लिये (ब्रह्म प्र-अर्चत) तुम्हारे पास तुम्हारी बड़ी वस्तु मन है उस मन को अर्पित करो “मनो वै सम्राट् परमं ब्रह्म” [श॰ १४.६.१०.१२] (शतक्रतुः) बहुत प्रज्ञान और कर्म वाला (वृत्रहा) पापनाशक (शतपर्वणा वज्रेण) बहुत शक्तिसन्धान वाले शासन के “वज्रः शासः” [श॰ ३.८.१.५] (वृत्रं हनति) पाप को नष्ट करता है “शपो लुगभावश्छान्दसः”।
भावार्थ - अध्यात्म यज्ञ के याजक उपासको! महान् परमात्मा के लिये अपने मन को अर्पित करो। वह बहुत प्रज्ञान कर्म वाला पाप संकल्प का नाशक, बहुत शक्ति सन्धान वाले शासन से तुम्हारे मन के पाप को नष्ट कर देता है॥
विशेष - ऋषिः—नृमेधः पुरुषमेधश्च (नायक बुद्धि वाला और पौरुष बुद्धि वाला उपासक)॥<br>
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