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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 34
ऋषिः - उशना काव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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क꣡स्य꣢ नू꣣नं꣡ प꣢꣯रीणसि꣣ धि꣡यो꣢ जिन्वसि सत्पते । गो꣡षा꣢ता꣣ य꣡स्य꣢ ते꣣ गि꣡रः꣢ ॥३४॥
स्वर सहित पद पाठक꣡स्य꣢꣯ । नू꣣न꣢म् । प꣡री꣢꣯णसि । प꣡रि꣢꣯ । न꣣सि । धि꣡यः꣢꣯ । जि꣣न्वसि । सत्पते । सत् । पते । गो꣡षा꣢꣯ता । गो꣢ । सा꣣ता । य꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । गि꣡रः꣢꣯ ॥३४॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्य नूनं परीणसि धियो जिन्वसि सत्पते । गोषाता यस्य ते गिरः ॥३४॥
स्वर रहित पद पाठ
कस्य । नूनम् । परीणसि । परि । नसि । धियः । जिन्वसि । सत्पते । सत् । पते । गोषाता । गो । साता । यस्य । ते । गिरः ॥३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 34
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 14
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 14
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(सत्पते) हे सत्पुरुषों मुमुक्षुओं के पालक परमात्मन्! (कस्य नूनम्) किसी के फिर “नूनं तर्के” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] (धियः) ‘मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार’ प्रज्ञानों को “धीः प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.१] (परिणसि) भूमा में—मोक्ष में “परिणसा बहुनाम” [निघं॰ ३.१] “भूमा वै सुखम्” [श॰ ३.१.१.१२] (जिन्वसि) तृप्त करता है (ते गिरः-यस्य गोषाताः) तेरे लिये जिसकी स्तुतियाँ इन्द्रियों में संसेवित—संगत हो गईं।
भावार्थ - हे परमात्मन्! तेरे लिये की हुई स्तुतियाँ जिसकी इन्द्रियों में बैठ जाती हैं, चरितार्थ हो जाती हैं, इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय से विरत हो तेरी स्तुतियों में लग जाती हैं, वही उपासक महान् आनन्द या महान् धाम—मोक्ष को प्राप्त होता है। उसी जीवन्मुक्त का अन्तःकरण चतुष्टय तृप्त होता है, उसी पर तेरी परम कृपा होती है॥१४॥
विशेष - ऋषिः—उशनाः (कल्याण की कामना करने वाला उपासक)॥<br>
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