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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 513
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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आ꣡ सो꣢म स्वा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिस्ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । ज꣢नो꣣ न꣢ पु꣣रि꣢ च꣣꣬म्वो꣢꣯र्विश꣣द्ध꣢रिः꣣ स꣢दो꣣ व꣡ने꣢षु दध्रिषे ॥५१३॥
स्वर सहित पद पाठआ । सो꣣म । स्वानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । तिरः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । ज꣡नः꣢꣯ । न । पु꣣रि꣢ । च꣣म्वोः꣢꣯ । वि꣣शत् । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡दः꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । द꣣ध्रिषे ॥५१३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सोम स्वानो अद्रिभिस्तिरो वाराण्यव्यया । जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः सदो वनेषु दध्रिषे ॥५१३॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । सोम । स्वानः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । तिरः । वाराणि । अव्यया । जनः । न । पुरि । चम्वोः । विशत् । हरिः । सदः । वनेषु । दध्रिषे ॥५१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 513
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(अद्रिभिः) आदरणीय—सत्करणीय—सत्कार सेवित “तपसा, ब्रह्मचर्येण विद्यया श्रद्धया सेवितः सत्कारवान् भवति” [योग॰ १.१४ व्यासः] योगाभ्यासों के द्वारा (अव्यया वाराणि तिरः) अनिवार्य दोषवारण साधनों—यम नियम को मध्य में सेवित कर के (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (स्वानः) निष्पन्न—साक्षात् करणीय है, जो कि (हरिः) दुःखापहर्ता सुखाहर्ता (चम्वोः) द्यावापृथिवीमय द्युलोक से पृथिवीलोक पर्यन्त जगत् में “चम्वौ द्यावापृथिवीनाम्” [निघं॰ ३.३०] (आविशत्) समन्तरूप से प्रविष्ट है (जनः-न पुरि) जैसे जन जायमान प्राणी देहपुरी में आविष्ट होता है। वह तू (वनेषु सदः-दध्रिषे) वननीय मर्म स्थान में विशेषतः हृदयसदन को धारता है।
भावार्थ - आदर सत्कार से तप ब्रह्मचर्य विद्या श्रद्धा से किए योगाभ्यासों के द्वारा और अनिवार्य दोषनिवारक अहिंसा आदि व्रतों को मध्य में करके शान्तस्वरूप परमात्मा निष्पन्न—साक्षात् किया हुआ जो कि दुःखापहर्ता सुखाहर्ता द्यावापृथिवीमय—द्युलोक से पृथिवीलोक पर्यन्त समस्त जगत् में ऐसे आविष्ट हो रहा है जैसे जन्यमान जीवात्मा देहपुरी में आविष्ट होता है। वह वननीय मर्म स्थलों हृदय आदि को अपना सदन बना रहा है॥३॥
विशेष - ऋषिः—‘भरद्वाजः कश्यपः, गोतमः, अत्रिः, विश्वामित्रः, जमदग्निः, वसिष्ठः’ इति सप्तर्षयः (सम्पूर्ण खण्ड के ये भरद्वाज आदि सात ऋषि हैं अर्थ पीछे आ चुके हैं)॥ <br>
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