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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 521
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प꣡व꣢स्व वाज꣣सा꣡त꣢मो꣣ऽभि꣡ विश्वा꣢꣯नि꣣ वा꣡र्या꣢ । त्व꣡ꣳ स꣢मु꣣द्रः꣡ प्र꣢थ꣣मे꣡ विध꣢꣯र्मन् दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सोम मत्स꣣रः꣢ ॥५२१॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯स्व । वा꣣जसा꣡त꣢मः । वा꣣ज । सा꣡त꣢꣯मः । अ꣣भि꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । वा꣡र्या꣢꣯ । त्वम् । स꣣मुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । प्र꣣थमे꣢ । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । देवे꣡भ्यः꣢ । सो꣣म । मत्सरः꣢ ॥५२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व वाजसातमोऽभि विश्वानि वार्या । त्वꣳ समुद्रः प्रथमे विधर्मन् देवेभ्यः सोम मत्सरः ॥५२१॥
स्वर रहित पद पाठ
पवस्व । वाजसातमः । वाज । सातमः । अभि । विश्वानि । वार्या । त्वम् । समुद्रः । सम् । उद्रः । प्रथमे । विधर्मन् । वि । धर्मन् । देवेभ्यः । सोम । मत्सरः ॥५२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 521
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (त्वं समुद्रः) तू आनन्द का सागर है—प्रेरक है तथा (देवेभ्यः) मुमुक्षुओं के लिये (प्रथमे विर्धमन्) प्रथम धर्म की विधृति में देवधर्म की विशेष प्राप्ति के निमित्त “विधर्म भवति धर्मस्य विधृत्यै” [तां॰ १५.५.२१] (मत्सरः) हर्षकर, तथा (वाजसातमः) अमृत अन्नभोग—मोक्ष में प्रापणीय आनन्द का अत्यन्त दाता (विश्वानि वार्या) समस्त वारण करने योग्यों को (अभि) अभिभव अभिभूत कर।
भावार्थ - हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू आनन्द का प्रेरक है, मुमुक्षुओं के लिये प्रमुख धर्म देवधर्म की विशेषधृति में आनन्दप्रद और अमृतभोग का अत्यन्त दाता है समस्त हटाने योग्य को अभिभूत करने—दबाने वाला एवं आनन्द का समुद्र है॥११॥
विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः॥<br>
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