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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 738
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
य꣢स्ते꣣ अ꣡नु꣢ स्व꣣धा꣡मस꣢꣯त्सु꣣ते꣡ नि य꣢꣯च्छ त꣣꣬न्व꣢꣯म् । स꣡ त्वा꣢ ममत्तु सोम्य ॥७३८॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । ते꣣ । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣धा꣢म् । स्व꣡ । धा꣢म् । अ꣡स꣢꣯त् । सु꣣ते꣢ । नि । य꣣च्छ । त꣢꣯न्व꣢म् । सः । त्वा꣣ । ममत्तु । सोम्य ॥७३८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते अनु स्वधामसत्सुते नि यच्छ तन्वम् । स त्वा ममत्तु सोम्य ॥७३८॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । ते । अनु । स्वधाम् । स्व । धाम् । असत् । सुते । नि । यच्छ । तन्वम् । सः । त्वा । ममत्तु । सोम्य ॥७३८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 738
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(ते) हे इन्द्र परमात्मन्! तेरा (यः) जो उपासक (सुते) उपासनारस निष्पन्न होने पर (स्वधाम्-अनु-असत्) अपनी आत्मसमर्पण क्रिया के अनुसरण हो रहा है (तन्वं नियच्छ) स्वकीय आत्मा—स्वरूप को “आत्मा वै तनूः” [श॰ ६.७.२.६] उसके लिए प्रदान कर—प्रदान करता है (सोम्य सः-त्वा ममत्तु) हे उपासनारस के योग्य परमात्मन्! वह उपासक तुझे उपासनारस से निरन्तर हर्षित करता रहे।
भावार्थ - परमात्मन्! जो उपासक उपासना समय अपने आत्मा का तेरे प्रति समर्पण करता है तू भी अपने स्वरूपदर्शन का प्रसाद उसे देता है, पुनः वह उपासक उपासनारस से तुझे तृप्त हर्षित करता रहता है॥२॥
विशेष - <br>
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