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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 745
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣡ घा꣢ गम꣣द्य꣢दि꣣ श्र꣡व꣢त्सह꣣स्रि꣡णी꣢भिरू꣣ति꣡भिः꣢ । वा꣡जे꣢भि꣣रु꣡प꣢ नो꣣ ह꣡व꣢म् ॥७४५॥

स्वर सहित पद पाठ

आ । घ꣣ । गमत् । य꣡दि꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯त् । स꣣हस्री꣡णी꣢भिः । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । वा꣡जे꣢꣯भिः । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡वम्꣢꣯ ॥७४५॥


स्वर रहित मन्त्र

आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः । वाजेभिरुप नो हवम् ॥७४५॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । घ । गमत् । यदि । श्रवत् । सहस्रीणीभिः । ऊतिभिः । वाजेभिः । उप । नः । हवम् ॥७४५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 745
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(नः-हवं यदि श्रवत्) हमारे नम्र स्तुतिवचन या आमन्त्रण को वह इन्द्र—परमात्मा यदि सुने—स्वीकार करे तो (घ) निश्चय—अवश्य (सहस्रिणीभिः-ऊतिभिः) आयुष्मती—दीर्घ जीवन देनेवाली रक्षा पद्धतियों के साथ “आयुर्वें सहस्रम्” [तै॰ १.८.१५] (आगमत्) आ जावे तथा (वाजेभिः-उप) अमृत अन्न भोगों के द्वारा उपकृत करे।

भावार्थ - उपासक नम्र स्तुतिवचन या आमन्त्रण परमात्मा के प्रति करे तो परमात्मा उसे अवश्य सुन—स्वीकार कर दीर्घ जीवन देने वाली रक्षा विधियों के साथ उसके हृदय में प्राप्त होता है साक्षात् होता है तथा उस उपासक को अमृत भोगों से भी उपकृत कर देता है॥३॥

विशेष - <br>

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