अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
ये दे॒वाना॑मृ॒त्विजो॑ य॒ज्ञिया॑सो॒ मनो॒र्यज॑त्रा अ॒मृता॑ ऋत॒ज्ञाः। ते नो॑ रासन्तामुरुगा॒यम॒द्य यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठये। दे॒वाना॑म्। ऋ॒त्विजः॑। य॒ज्ञिया॑सः। मनोः॑। यज॑त्राः। अ॒मृताः॑। ऋ॒त॒ऽज्ञाः। ते। नः॒। रा॒स॒न्ता॒म्। उ॒रु॒ऽगा॒यम्। अ॒द्य। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥११.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवानामृत्विजो यज्ञियासो मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः। ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठये। देवानाम्। ऋत्विजः। यज्ञियासः। मनोः। यजत्राः। अमृताः। ऋतऽज्ञाः। ते। नः। रासन्ताम्। उरुऽगायम्। अद्य। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥११.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
विषय - इष्ट की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(ये) जो लोग (देवानाम्) विद्वानों के बीच (ऋत्विजः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार] करनेहारे, (यज्ञियासः) पूजायोग्य, (मनोः) ज्ञान के (यजत्राः) देनेहारे, (अमृताः) अमर [कीर्तिवाले] और (ऋतज्ञाः) सत्य धर्म के जाननेहारे हैं। (ते) वे (नः) हमें (अद्य) आज (उरुगायम्) चौड़ा मार्ग [वा बहुत ज्ञान] (रासन्ताम्) देवें, (यूयम्) तुम [विद्वानों] (स्वस्तिभिः) अनेक सुखों से (सदा) सदा (नः) हमारी (पात) रक्षा करो ॥५॥
भावार्थ - जो लोग विद्वानों में महाविद्वान्, जीवन्मुक्त, परोपकारी हों, उनकी आज्ञा पालन करके हम सदा सुखी रहें ॥५॥
टिप्पणी -
५−(ये) महाविद्वांसः (देवानाम्) विदुषां मध्ये (ऋत्विजः) ऋतावृतौ यष्टारः श्रेष्ठकर्मकर्त्तारः (यज्ञियासः) पूजार्हाः (मनोः) ज्ञानस्य (यजत्राः) दातारः (अमृताः) अमराः। कीर्तिमन्तः (ऋतज्ञाः) सत्यधर्मस्य ज्ञातारः (ते) पूर्वोक्ताः (नः) अस्मभ्यम् (रासन्ताम्) ददतु (उरुगायम्) गै शब्दे गाङ् गतौ-वा-घञ्, युगागमः विस्तीर्णमार्गम्। बहुज्ञानम् (अद्य) अस्मिन् दिने (यूयम्) (पात) रक्षत (स्वस्तिभिः) कल्याणैः (सदा) (नः) अस्मान् ॥