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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोपथः देवता - वाजी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अश्व सूक्त

    अश्रा॑न्तस्य त्वा॒ मन॑सा यु॒नज्मि॑ प्रथ॒मस्य॑ च। उत्कू॑लमुद्व॒हो भ॑वो॒दुह्य॒ प्रति॑ धावतात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्रा॑न्तस्य। त्वा॒। मन॑सा। यु॒नज्म‍ि॑। प्र॒थ॒मस्य॑। च॒। उत्ऽकू॑लम्। उ॒त्ऽव॒हः। भ॒व॒। उ॒त्ऽउह्य॑। प्रति॑। धा॒व॒ता॒त् ॥२५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्रान्तस्य त्वा मनसा युनज्मि प्रथमस्य च। उत्कूलमुद्वहो भवोदुह्य प्रति धावतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्रान्तस्य। त्वा। मनसा। युनज्म‍ि। प्रथमस्य। च। उत्ऽकूलम्। उत्ऽवहः। भव। उत्ऽउह्य। प्रति। धावतात् ॥२५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 25; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे शूर !] (अश्रान्तस्य) अनथके (च) और (प्रथमस्य) पहिले पदवाले पुरुष के (मनसा) मन से (त्वा) तुझको (युनज्मि) मैं संयुक्त करता हूँ। (उत्कूलम्) ऊँचे तट की ओर चलकर (उद्वह) ऊँचा ले चलनेवाला (भव) हो, और [मनुष्यों को] (उदुह्य) ऊँचे ले जाकर (प्रति) प्रतीति से (धावतात्) दौड़ ॥१॥

    भावार्थ - परमेश्वर आज्ञा देता है कि हे मनुष्य तू निरालसी नेता पुरुषों के समान पुरुषार्थ कर, और जैसे चतुर नाविक सावधानी से धार को काटता हुआ बलप्रवाह के ऊपर की ओर यात्रियों को ठिकाने पर उतारता है, वैसे ही पराक्रमी पुरुष सबको कठिनाई से निकालकर सुख पहुँचावे ॥१॥

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