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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः, हिरण्यम्
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - हिरण्यधारण सूक्त
यद्वेद॒ राजा॒ वरु॑णो॒ वेद॑ दे॒वो बृह॒स्पतिः॑। इन्द्रो॒ यद्वृ॑त्र॒हा वेद॒ तत्त॑ आयु॒ष्यं॑ भुव॒त्तत्ते॑ वर्च॒स्यं॑ भुवत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। वेद॑। राजा॑। वरु॑णः। वेद॑। दे॒वः। बृह॒स्पतिः॑। इन्द्रः॑। यत्। वृ॒त्र॒ऽहा। वेद॑। तत्। ते॒। आ॒युष्य᳡म्। भु॒व॒त्। तत्। ते॒। व॒र्च॒स्य᳡म्। भु॒व॒त् ॥२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वेद राजा वरुणो वेद देवो बृहस्पतिः। इन्द्रो यद्वृत्रहा वेद तत्त आयुष्यं भुवत्तत्ते वर्चस्यं भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। वेद। राजा। वरुणः। वेद। देवः। बृहस्पतिः। इन्द्रः। यत्। वृत्रऽहा। वेद। तत्। ते। आयुष्यम्। भुवत्। तत्। ते। वर्चस्यम्। भुवत् ॥२६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
विषय - सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(यत्) जिस [सुवर्ण] को (राजा) ऐश्वर्यवान् (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (वेद) जानता है, और [जिसको] (देवः) विद्वान् (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ज्ञानों का रक्षक पुरुष] (वेद) जानता है। (यत्) जिसको (वृत्रहा) शत्रुनाशक (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी पुरुष] (वेद) जानता है, (तत्) वह (ते) तेरे लिये (आयुष्यम्) आयु बढ़ानेवाला (भुवत्) होवे, (तत्) वह (ते) तेरे लिये (वर्चस्यम्) तेज बढ़ानेवाला (भुवत्) होवे ॥४॥
भावार्थ - मनुष्य विद्वान् पराक्रमियों के समान सुवर्ण के प्रभाव को जानकर उसे यथावत् प्राप्त करे और धर्म के साथ उसका प्रयोग करके यशस्वी और तेजस्वी होवे ॥४॥
टिप्पणी -
४−(यत्) हिरण्यम् (वेद) जानाति (राजा) ऐश्वर्यवान् (वरुणः) श्रेष्ठपुरुषः (वेद) (देवः) विद्वान् (बृहस्पतिः) बृहतां ज्ञानानां रक्षकः (इन्द्रः) महाप्रतापी पुरुषः (यत्) (वृत्रहा) शत्रुनाशकः (वेद) (तत्) हिरण्यम् (ते) तुभ्यम् (आयुष्यम्) आयुषे चिरकालजीवनाय हितम्। आयुष्कारि (भुवत्) लेटि रूपम्। भवेत् (तत्) (ते) (वर्चस्यम्) वर्चसे हितम्। तेजस्कारि (भुवत्) ॥