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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 42

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्म छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्म यज्ञ सूक्त

    ब्रह्म॒ स्रुचो॑ घृ॒तव॑ती॒र्ब्रह्म॑णा॒ वेदि॒रुद्धि॑ता। ब्रह्म॑ य॒ज्ञस्य॒ तत्त्वं॑ च ऋ॒त्विजो॒ ये ह॑वि॒ष्कृतः॑। श॑मि॒ताय॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑। स्रुचः॑। घृ॒तऽव॑तीः। ब्रह्म॑णा। वेदिः॑। उद्धि॑ता। ब्रह्म॑। य॒ज्ञस्य॑। तत्त्व॑म्। च॒। ऋ॒त्विजः॑ । ये। ह॒विः॒ऽकृतः॑। श॒मि॒ताय॑। स्वाहा॑ ॥४२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म स्रुचो घृतवतीर्ब्रह्मणा वेदिरुद्धिता। ब्रह्म यज्ञस्य तत्त्वं च ऋत्विजो ये हविष्कृतः। शमिताय स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म। स्रुचः। घृतऽवतीः। ब्रह्मणा। वेदिः। उद्धिता। ब्रह्म। यज्ञस्य। तत्त्वम्। च। ऋत्विजः । ये। हविःऽकृतः। शमिताय। स्वाहा ॥४२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 42; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (ब्रह्म=ब्रह्मणा) वेदद्वारा (घृतवतीः) घीवाली (स्रुचः) स्रुचाएँ [चमचे], (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (वेदिः) वेदी (उद्धिता) स्थिर की गयी है। (ब्रह्म) वेद द्वारा (यज्ञस्य) यज्ञ का (तत्त्वम्) तत्त्व (च) और (ये) जो (हविष्कृतः) हवन करनेवाले (ऋत्विजः) ऋत्विज हैं [वे भी स्थिर किये हैं]। (शमिताय) शान्तिकारक [वेद] के लिये (स्वाहा) स्वाहा [सुन्दर वाणी] है ॥२॥

    भावार्थ - वेद से ही यज्ञ के साधनों और यज्ञकर्ताओं का विधान किया जाता है ॥२॥

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