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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
अं॒हो॒मुचं॑ वृष॒भं य॒ज्ञिया॑नां वि॒राज॑न्तं प्रथ॒मम॑ध्व॒राण॑म्। अ॒पां नपा॑तम॒श्विना॑ हुवे॒ धिय॑ इन्द्रि॒येण॑ त इन्द्रि॒यं द॑त्त॒मोजः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअं॒हः॒ऽमुच॑म्। वृ॒ष॒भम्। य॒ज्ञिया॑नाम्। वि॒ऽराज॑न्तम्। प्र॒थ॒मम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्। अ॒पाम्। नपा॑तम्। अ॒श्विना॑। हु॒वे॒। धियः॑। इ॒न्द्रि॒येण॑। ते॒ । इ॒न्द्रि॒यम्। द॒त्त॒म्। ओजः॑ ॥४२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अंहोमुचं वृषभं यज्ञियानां विराजन्तं प्रथममध्वराणम्। अपां नपातमश्विना हुवे धिय इन्द्रियेण त इन्द्रियं दत्तमोजः ॥
स्वर रहित पद पाठअंहःऽमुचम्। वृषभम्। यज्ञियानाम्। विऽराजन्तम्। प्रथमम्। अध्वराणाम्। अपाम्। नपातम्। अश्विना। हुवे। धियः। इन्द्रियेण। ते । इन्द्रियम्। दत्तम्। ओजः ॥४२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
विषय - वेद की स्तुति का उपदेश।
पदार्थ -
(अंहोमुचम्) कष्ट से छुड़ाने हारे, (यज्ञियानाम्) पूजा योग्यों में (वृषभम्) श्रेष्ठ, (अध्वराणाम्) हिंसारहित यज्ञों के (विराजन्तम्) विशेष शोभायमान (प्रथमम्) मुख्य, (अपाम्) प्रजाओं के (नपातम्) न गिरानेवाले [बड़े रक्षक, परमात्मा] को (हुवे) मैं बुलाता हूँ। [हे उपासक !] (अश्विना) व्यवहारों में व्यापक माता-पिता दोनों (इन्द्रियेण) परम ऐश्वर्यवान् पुरुष के पराक्रम से (ते) तुझको (धियः) बुद्धियाँ, (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य और (ओजः) पराक्रम (दत्तम्=दत्ताम्) देवें ॥४॥
भावार्थ - मनुष्य माता-पिता आचार्य आदि की शिक्षा से बुद्धिमान् ऐश्वर्यवान् और पराक्रमी होकर परमात्मा की भक्ति करके उन्नति करें ॥४॥
टिप्पणी -
४−(अंहोमुचम्) पापाद् मोचयितारम् (वृषभम्) श्रेष्ठम् (यज्ञियानाम्) पूजनीयानाम् (विराजन्तम्) विशेषेण शोभायमानम् (प्रथमम्) मुख्यम् (अध्वराणाम्) हिंसारहितानां यज्ञानाम् (अपाम्) प्रजानाम् (नपातम्) न पातयितारम्। महारक्षकम् (अश्विना) हे कर्मसु व्यापकौ मातापितरौ (हुवे) आह्वयामि (धियः) बुद्धीः (इन्द्रियेण) इन्द्रयोग्यपराक्रमेण (ते) तुभ्यम् (इन्द्रियम्) परमैश्वर्यम् (दत्तम्) दत्ताम्। प्रयच्छताम् (ओजः) पराक्रमम् ॥