अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
सूक्त - गोपथः
देवता - रात्रिः
छन्दः - पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा परातिजगती
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
न यस्याः॑ पा॒रं ददृ॑शे॒ न योयु॑व॒द्विश्व॑म॒स्यां नि वि॑शते॒ यदेज॑ति। अरि॑ष्टासस्त उर्वि तमस्वति॒ रात्रि॑ पा॒रम॑शीमहि॒ भद्रे॑ पा॒रम॑शीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठन। यस्याः॑। पा॒रम्। ददृ॑शे। न। योयु॑वत्। विश्व॑म्। अ॒स्याम्। नि। वि॒श॒ते॒। यत्। एज॑ति। अरि॑ष्टासः। ते॒। उ॒र्वि॒। त॒म॒स्व॒ति॒। रात्रि॑। पा॒रम्। अ॒शी॒म॒हि॒। भद्रे॑। पा॒रम्। अ॒शी॒म॒हि॒ ॥४७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न यस्याः पारं ददृशे न योयुवद्विश्वमस्यां नि विशते यदेजति। अरिष्टासस्त उर्वि तमस्वति रात्रि पारमशीमहि भद्रे पारमशीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठन। यस्याः। पारम्। ददृशे। न। योयुवत्। विश्वम्। अस्याम्। नि। विशते। यत्। एजति। अरिष्टासः। ते। उर्वि। तमस्वति। रात्रि। पारम्। अशीमहि। भद्रे। पारम्। अशीमहि ॥४७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(न) न तो (यस्याः) जिस [रात्रि] का (पारम्) पार और (न) न (योयुवत्) [प्रकाश से] अलग होनेवाला [स्थान] (ददृशे) दिखाई पड़ता है, (यत्) जो कुछ (एजति) चेष्टा करता है, (सर्वम्) वह सब (अस्याम्) उस [रात्रि] में (नि विशते) ठहर जाता है। (उर्वि) हे फैली हुई, (तमस्वति) अंधेरी (रात्रि) रात्रि ! (अरिष्टासः) बिना कष्ट पाये हुए हम (ते) तेरे (पारम्) पार को (अशीमहि) पावें, (भद्रे) हे कल्याणी ! [तेरे] (पारम्) पार को (अशीमहि) पावें ॥२॥
भावार्थ - पृथिवी के अपनी धुरी पर घूमने और सूर्य की परिक्रमा करने में प्रकाश की निवृत्ति और अन्धकार की प्रवृत्ति ऐसी शीघ्र होती है कि मनुष्य को उस समय का अनुभव करना अति कठिन है। मनुष्य विश्राम करके यथायोग्य अपने कामों में प्रवृत्त होवें ॥२॥
टिप्पणी -
२−(न) निषेधे (यस्याः) रात्रेः (पारम्) अन्तः (ददृशे) दृष्टम् (न) निषेधे (योयुवत्) यौतेर्यङ्लुगन्तात्-शतृ। प्रकाशाद् विभज्यमानं स्थानम् (विश्वम्) सर्वम् (अस्याम्) रात्रौ (निविशते) तिष्ठति (यत्) यत्किञ्चित् (एजति) चेष्टते (अरिष्टासः) अरिष्टाः। अहिंसिताः (ते) तव (उर्वि) हे विस्तृते (तमस्वति) हे अन्धकारयुक्ते (पारम्) अन्तम् (अशीमहि) वयं प्राप्नुयाम (भद्रे) हे कल्याणि (पारम् अशीमहि) आदरार्थं पुनरुक्तिः ॥