अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
ष॒ष्टिश्च॒ षट्च॑ रेवति पञ्चा॒शत्पञ्च॑ सुम्नयि। च॒त्वार॑श्चत्वारिं॒शच्च॒ त्रय॑स्त्रिं॒शच्च॑ वाजिनि ॥
स्वर सहित पद पाठषष्टिः॑। च॒। षट्। च॒। रे॒व॒ति॒। प॒ञ्चा॒शत्। पञ्च॑। सु॒म्न॒यि॒। च॒त्वारः॑। च॒त्वारिं॒शत्। च॒। त्रयः॑। त्रिं॒शत्। च॒। वा॒जि॒नि॒ ॥४७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
षष्टिश्च षट्च रेवति पञ्चाशत्पञ्च सुम्नयि। चत्वारश्चत्वारिंशच्च त्रयस्त्रिंशच्च वाजिनि ॥
स्वर रहित पद पाठषष्टिः। च। षट्। च। रेवति। पञ्चाशत्। पञ्च। सुम्नयि। चत्वारः। चत्वारिंशत्। च। त्रयः। त्रिंशत्। च। वाजिनि ॥४७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(रेवति) हे धनवती ! (षष्टिः च षट्) साठ और छह [छियासठ] (च) और (सुम्नयि) हे सुखप्रदे ! (पञ्चाशत् पञ्च) पचास और पाँच [पचपन], (च) और (वाजिनि) हे बलवती ! [वा वेगवती] (चत्वारिंशत् चत्वारः) चालीस और चार [चवालीस], (च) और (त्रिंशत् त्रयः) तीस और तीन [तेंतीस] ॥४॥
भावार्थ - मन्त्र ३-५ में ९९ में से ११, ११ घटते-घटते ११ तक रहे हैं और [नीचे] शब्द से शेष संख्या एक तक मानी है। भाव यह है कि मनुष्य अपनी योग्यता के अनुसार बहुत वा थोड़े रक्षकों द्वारा रात्रि में रक्षा करते रहें ॥३-५॥
टिप्पणी -
४−(षष्टिः षट्) षडुत्तरषष्टिसंख्याकाः (च) (च) (रेवति) हे धनवति (पञ्चाशत् पञ्च) पञ्चोत्तरपञ्चाशत्संख्याकाः (सुम्नयि) छन्दसि परेच्छायां क्यच्। वा० पा० ३।१।८। सुम्न-क्यच्, अच्, गौरादित्वाद् ङीप्। सुम्नं सुखं परेषामिच्छतीति या सा सुम्नयी तत्सम्बुद्धौ। हे सुखप्रदे (चत्वारिंशत् चत्वारः) चतुरुत्तरचत्वारिंशत्संख्याकाः (च) (त्रयस्त्रिंशत्) त्रिरुत्तरत्रिंशत्संख्याकाः (च) (वाजिनि) हे बलवति हे वेगवति ॥