अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
त्वं का॑म॒ सह॑सासि॒ प्रति॑ष्ठितो वि॒भुर्वि॒भावा॑ सख॒ आ स॑खीय॒ते। त्वमु॒ग्रः पृत॑नासु सास॒हिः सह॒ ओजो॒ यज॑मानाय धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्। का॒म॒। सह॑सा। अ॒सि॒। प्रति॑ऽस्थितः। वि॒ऽभुः। वि॒भाऽवा॑। स॒खे॒। आ। स॒खी॒य॒ते ॥ त्वम्। उ॒ग्रः। पृत॑नासु। स॒स॒हिः। सहः॑। ओजः॑। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥५२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं काम सहसासि प्रतिष्ठितो विभुर्विभावा सख आ सखीयते। त्वमुग्रः पृतनासु सासहिः सह ओजो यजमानाय धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। काम। सहसा। असि। प्रतिऽस्थितः। विऽभुः। विभाऽवा। सखे। आ। सखीयते ॥ त्वम्। उग्रः। पृतनासु। ससहिः। सहः। ओजः। यजमानाय। धेहि ॥५२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
विषय - काम की प्रशंसा का उपदेश।
पदार्थ -
(काम) हे काम ! [आशा] (त्वम्) तू (सहसा) बल के साथ (प्रतिष्ठिताः) प्रतिष्ठायुक्त (असि) है, (आ) और, (सखे) हे मित्र ! (सखीयते) मित्र चाहनेवाले के लिये तू (विभुः) समर्थ और (विभावा) तेजस्वी है। (त्वम्) तू (पृतनासु) सङ्ग्रामों में (उग्रः) उग्र और (सासहिः) विजयी है, (सहः) बल और (ओजः) पराक्रम (यजमानाय) यजमान को (धेहि) दान कर ॥२॥
भावार्थ - जो मनुष्य अपनी आशाओं में दृढ़ होते हैं, वे ही संसार में प्रतापी और विजयी होकर कीर्ति पाते हैं ॥२॥
टिप्पणी -
२−(त्वम्) (काम) हे इच्छे ! हे आशे ! (सहसा) बलेन (असि) (प्रतिष्ठितः) प्रतिष्ठायुक्तः (विभुः) समर्थः (विभावा) भातेः-क्वनिप्। विशेषेण दीप्यमानः। तेजस्वी (सखे) हे मित्र (आ) समुच्चये (सखीयते) सखि-क्यच्, शतृ। मित्रमिच्छते पुरुषाय (त्वम्) (उग्रः) प्रचण्डः (पृतनासु) संग्रामेषु (सासहिः) सहेर्यङन्तात्-किप्रत्ययः। विजयी (सहः) बलम् (ओजः) पराक्रमम् (यजमानाय) (धेहि) देहि ॥