अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
दू॒राच्च॑कमा॒नाय॑ प्रतिपा॒णायाक्ष॑ये। आस्मा॑ अशृण्व॒न्नाशाः॒ कामे॑नाजनय॒न्त्स्वः ॥
स्वर सहित पद पाठदू॒रात्। च॒क॒मा॒नाय॑। प्र॒ति॒ऽपा॒नाय॑। अक्ष॑ये। आ। अ॒स्मै॒। अ॒शृ॒ण्व॒न्। आशाः॑।कामे॑न। अ॒ज॒न॒य॒न्। स्वः᳡ ॥५२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दूराच्चकमानाय प्रतिपाणायाक्षये। आस्मा अशृण्वन्नाशाः कामेनाजनयन्त्स्वः ॥
स्वर रहित पद पाठदूरात्। चकमानाय। प्रतिऽपानाय। अक्षये। आ। अस्मै। अशृण्वन्। आशाः।कामेन। अजनयन्। स्वः ॥५२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
विषय - काम की प्रशंसा का उपदेश।
पदार्थ -
(अक्षये) निर्हानि [पूर्णता] के बीच (प्रतिपानाय) सब प्रकार रक्षा के लिये (दूरात्) दूर से [जन्म से पूर्व कर्म के संस्कार के कारण से] (चकमानाय) कामना कर चुकनेवाले (अस्मै) इस [पुरुष] को (आशाः) दिशाओं ने (कामेन) काम [आशा] के साथ (स्वः) सुख को (आ अशृण्वन्) अङ्गीकार किया है और (अजनयन्) उत्पन्न किया है ॥३॥
भावार्थ - मनुष्य पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण जन्म से ही अक्षय सुख के लिये दृढ़ आशा और प्रयत्न करता हुआ प्रत्येक स्थान में आनन्द पाता है ॥३॥
टिप्पणी -
३−(दूरात्) पूर्वजन्मफलसंस्कारात् (चकमानाय) कमतेर्लिटः कानच्। कामनां कृतवते पुरुषाय (प्रतिपानाय) सर्वतोरक्षणाय (अक्षये) क्षयराहित्ये। अहानौ। सम्पूर्णत्वे (आ अशृण्वन्) अङ्गीकृतवत्यः (अस्मै) पुरुषाय (आशाः) प्राच्यादयो दिशाः (कामेन) इच्छया (अजनयन्) उदपादयन् (स्वः) सुखम् ॥