अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 4
स ए॒व सं भुव॑ना॒न्याभ॑र॒त्स ए॒व सं भुव॑नानि॒ पर्यै॑त्। पि॒ता सन्न॑भवत्पु॒त्र ए॑षां॒ तस्मा॒द्वै नान्यत्पर॑मस्ति॒ तेजः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः। ए॒व। सम्। भुव॑नानि। आ। अ॒भ॒र॒त्। सः। ए॒व। सम्। भुव॑नानि। परि॑। ऐ॒त्। पि॒ता। सन्। अ॒भ॒व॒त्। पु॒त्रः। ए॒षा॒म्। तस्मा॑त्। वै। न। अ॒न्यत्। पर॑म्। अ॒स्ति॒। तेजः॑ ॥५३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
स एव सं भुवनान्याभरत्स एव सं भुवनानि पर्यैत्। पिता सन्नभवत्पुत्र एषां तस्माद्वै नान्यत्परमस्ति तेजः ॥
स्वर रहित पद पाठसः। एव। सम्। भुवनानि। आ। अभरत्। सः। एव। सम्। भुवनानि। परि। ऐत्। पिता। सन्। अभवत्। पुत्रः। एषाम्। तस्मात्। वै। न। अन्यत्। परम्। अस्ति। तेजः ॥५३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 4
विषय - काल की महिमा का उपदेश।
पदार्थ -
(सः एव) उसने ही (भुवनानि) सत्ताओं को (सम्) अच्छे प्रकार (आ) सब ओर से (अभरत्) पुष्ट किया है, (सः एव) उसने ही (भुवनानि) सत्ताओं को (सम्) अच्छे प्रकार (परि ऐत्) घेर लिया है। वह (एषाम्) इन [सत्ताओं] का (पिता) पिता [पिता समान पहिले] (सन्) होकर (पुत्रः) पुत्र [पुत्र समान पीछे] (अभवत्) हुआ है, (तस्मात्) उससे (परम्) बड़ा (अन्यत्) दूसरा (तेजः) तेज [सृष्टि के बीच] (वै) निश्चय करके (न) नहीं (अस्ति) है ॥४॥
भावार्थ - काल सब सत्ताओं में व्यापक है, काल ही सृष्टि का पिता और पुत्र है, अर्थात् पहिली, वर्तमान और आगामी सृष्टि काल से ही है, अर्थात् नित्य होने से वही पहिले और वही पीछे है, इसीसे वह संसार में बड़ा प्रताप है ॥४॥
टिप्पणी -
४−(सः) कालः (एव) निश्चयेन (सम्) सम्यक् (भुवनानि) सत्तावन्ति जगन्ति (आ) समन्तात् (अभरत्) भृञ् भरणे भौवादिकः-लङ्। पोषितवान् (सः) (एव) (सम्) (भुवनानि) (परि ऐत्) इण् गतौ-लङ्। आच्छादितवान् (पिता) पितृवत् पूर्वभावी (सन्) वर्तमानः (अभवत्) (पुत्रः) पुत्र इव पितुः। पश्चाद् भावी (एषाम्) भुवनानाम् (तस्मात्) कालात् (वै) (न) निषेधे (अन्यत्) इतरत् (परम्) उत्कृष्टम् (अस्ति) भवति (तेजः) ज्योतिः ॥