अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
स॒प्त च॒क्रान्व॑हति का॒ल ए॒ष स॒प्तास्य॒ नाभी॑र॒मृतं॒ न्वक्षः॑। स इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नान्यञ्जत्का॒लः स ई॑यते प्रथ॒मो नु दे॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त। च॒क्रान्। व॒ह॒ति॒। का॒लः। ए॒षः। स॒प्त। अ॒स्य। नाभीः॑। अ॒मृत॑म्। नु। अक्षः॑। सः। इ॒मा। विश्वा॑। भुव॑नानि। अ॒ञ्ज॒त्। का॒लः। सः। ई॒य॒ते॒। प्र॒थ॒मः। नु। दे॒वः ॥५३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त चक्रान्वहति काल एष सप्तास्य नाभीरमृतं न्वक्षः। स इमा विश्वा भुवनान्यञ्जत्कालः स ईयते प्रथमो नु देवः ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त। चक्रान्। वहति। कालः। एषः। सप्त। अस्य। नाभीः। अमृतम्। नु। अक्षः। सः। इमा। विश्वा। भुवनानि। अञ्जत्। कालः। सः। ईयते। प्रथमः। नु। देवः ॥५३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
विषय - काल की महिमा का उपदेश।
पदार्थ -
(एषः कालः) यह काल [समय] (सप्त) [तीन काल और चार दिशाओं रूपी] सात (चक्रान्) पहियों को (वहति) चलाता है, (अस्य) इसकी (सप्त) [वे ही] सात (नाभीः) नाभि [पहिये के मध्य] हैं, और (अक्षः) [इसका] धुरा (नु) निश्चय करके (अमृतम्) अमरपन है। (सः) वह (इमा) इन (विश्वा) सब (भुवनानि) सत्तावालों को (अञ्जत्) प्रकट करता हुआ [है], (सः कालः) वह काल (नु) निश्चय करके (प्रथमः) पहिला (देवः) देवता [दिव्य पदार्थ] (ईयते) जाना जाता है ॥२॥
भावार्थ - काल व्यापक और नित्य है, काल से ही संसार के सब कार्य सिद्ध होते हैं, मनुष्य काल के यथावत् उपयोग से उन्नति को प्राप्त होवें ॥२॥
टिप्पणी -
२−(सप्त) त्रयः कालाश्चतस्रो दिशश्चेति सप्तसंख्याकान् (चक्रान्) रथाङ्गविशेषान् (वहति) चालयति (कालः) समयः (एषः) सर्वत्र व्यापकः (सप्त) पूर्वोक्ताः (नाभीः) नाभयः। अक्षबन्धकानि मध्यच्छिद्राणि (अमृतम्) अमरत्वम्। अक्षयम् (नु) निश्चयेन (अक्षः) रथावयवः (सः) कालः (इमा) व्याकृतानि (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) भवनवन्ति चराचरात्मकानि जगन्ति (अञ्जत्) अनक्तेः-शतृ, छान्दसो नुमभावः। अञ्जन्। व्यक्तीकुर्वन् (कालः) (सः) (ईयते) इण् गतौ-कर्मणि यक्। ज्ञायते तत्वज्ञैः (प्रथमः) आदिमः (नु) निश्चयेन (देवः) दिव्यपदार्थः ॥