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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    सूक्त - यमः देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त

    नैतां वि॑दुः पि॒तरो॒ नोत दे॒वा येषां॒ जल्पि॒श्चर॑त्यन्त॒रेदम्। त्रि॒ते स्वप्न॑मदधुरा॒प्त्ये नर॑ आदि॒त्यासो॒ वरु॑णे॒नानु॑शिष्टाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। ए॒ताम्। वि॒दुः॒। पि॒तरः॑। न। उ॒त। दे॒वाः। येषा॑म्। जल्पिः॑। चर॑ति। अ॒न्त॒रा। इ॒दम् । त्रि॒ते। स्वप्न॑म्। अ॒द॒धुः॒। आ॒प्त्ये। नर॑। आदि॑त्यासः। वरु॑णेन। अनु॑ऽशिष्टाः ॥५६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नैतां विदुः पितरो नोत देवा येषां जल्पिश्चरत्यन्तरेदम्। त्रिते स्वप्नमदधुराप्त्ये नर आदित्यासो वरुणेनानुशिष्टाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। एताम्। विदुः। पितरः। न। उत। देवाः। येषाम्। जल्पिः। चरति। अन्तरा। इदम् । त्रिते। स्वप्नम्। अदधुः। आप्त्ये। नर। आदित्यासः। वरुणेन। अनुऽशिष्टाः ॥५६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (एताम्) इस [आगे वर्णित वाणी] को (न) न तो (पितरः) पालन करनेवाले, (उत) और (न)(देवाः) विद्वान् लोग (विदुः) जानते हैं, (येषाम्) जिन [लोगों] को (जल्पिः) वाणी (इदम् अन्तरा) इस [जगत्] के बीच (चरति) विचरती है−“(वरुणेन) श्रेष्ठ [परमात्मा] करके (अनुशिष्टाः) शिक्षा किये गये, (आदित्यासः) अखण्डव्रतवाले (नरः) नेता लोगों ने (आप्त्ये) आप्ता [सत्यवक्ताओं] के हितकारी (त्रिते) तीनों [लोकों] के विस्तार करनेवाले [परमेश्वर] में (स्वप्नम्) स्वप्न को (दधुः) धारण किया है” ॥४॥

    भावार्थ - विचारना चाहिये ॥४॥

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