अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
ऋषिः - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
57
नैतां वि॑दुः पि॒तरो॒ नोत दे॒वा येषां॒ जल्पि॒श्चर॑त्यन्त॒रेदम्। त्रि॒ते स्वप्न॑मदधुरा॒प्त्ये नर॑ आदि॒त्यासो॒ वरु॑णे॒नानु॑शिष्टाः ॥
स्वर सहित पद पाठन। ए॒ताम्। वि॒दुः॒। पि॒तरः॑। न। उ॒त। दे॒वाः। येषा॑म्। जल्पिः॑। चर॑ति। अ॒न्त॒रा। इ॒दम् । त्रि॒ते। स्वप्न॑म्। अ॒द॒धुः॒। आ॒प्त्ये। नर॑। आदि॑त्यासः। वरु॑णेन। अनु॑ऽशिष्टाः ॥५६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
नैतां विदुः पितरो नोत देवा येषां जल्पिश्चरत्यन्तरेदम्। त्रिते स्वप्नमदधुराप्त्ये नर आदित्यासो वरुणेनानुशिष्टाः ॥
स्वर रहित पद पाठन। एताम्। विदुः। पितरः। न। उत। देवाः। येषाम्। जल्पिः। चरति। अन्तरा। इदम् । त्रिते। स्वप्नम्। अदधुः। आप्त्ये। नर। आदित्यासः। वरुणेन। अनुऽशिष्टाः ॥५६.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
निद्रा त्याग का उपदेश।
पदार्थ
(एताम्) इस [आगे वर्णित वाणी] को (न) न तो (पितरः) पालन करनेवाले, (उत) और (न) न (देवाः) विद्वान् लोग (विदुः) जानते हैं, (येषाम्) जिन [लोगों] को (जल्पिः) वाणी (इदम् अन्तरा) इस [जगत्] के बीच (चरति) विचरती है−“(वरुणेन) श्रेष्ठ [परमात्मा] करके (अनुशिष्टाः) शिक्षा किये गये, (आदित्यासः) अखण्डव्रतवाले (नरः) नेता लोगों ने (आप्त्ये) आप्ता [सत्यवक्ताओं] के हितकारी (त्रिते) तीनों [लोकों] के विस्तार करनेवाले [परमेश्वर] में (स्वप्नम्) स्वप्न को (दधुः) धारण किया है” ॥४॥
भावार्थ
विचारना चाहिये ॥४॥
टिप्पणी
४−(न) निषेधे (एताम्) वक्ष्यमाणां वाणीम् (विदुः) जानन्ति (पितरः) पालकाः (न) निषेधे (उत) अपि च (देवाः) विद्वांसः (येषाम्) (जल्पिः) जल्प व्यक्तायां वाचि इन्-प्रत्ययः। वाणी (चरति) विचरति। वर्तते (इदम् अन्तरा) अस्य जगतो मध्ये (त्रिते) अ० ५।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-ड प्रत्ययः। लोकत्रयविस्तारके परमात्मनि (स्वप्नम्) (दधुः) धारितवन्तः (आप्त्ये) आप्तानां सत्यवक्तॄणां हिते (नरः) नेतारः (आदित्यासः) अखण्डव्रतिनः (वरुणेन) श्रेष्ठेन परमेश्वरेण (अनुशिष्टाः) निरन्तरमुपदिष्टाः ॥
भाषार्थ
(एताम्) स्वप्न की इस सात्त्विक अवस्था को (न) न तो (पितरः) गृहस्थ में आसक्त (विदुः) जान पाते हैं, (उत न) और न (देवाः) अपरविद्या के विद्वान्, (येषाम्) जिन विद्वानों के कि (इदम् अन्तरा) इस चित्त के भीतर (जल्पिः) व्यर्थ का वाद-विवाद (चरति) चलता रहता है। (वरुणेन) श्रेष्ठ आचार्य द्वारा (अनुशिष्टाः) शिक्षित (आदित्यासः नरः) आदित्य ब्रह्मचारी पुरुष (स्वप्नम्) निज स्वप्नों को (त्रिते) अत्यन्त मेधावी, या तीन लोकों का विस्तार करनेवाले, या तीन लोकों में व्याप्त (आप्त्ये) आप्तों मे परम आप्त परमेश्वर में (अदधुः) स्थापित कर देते हैं।
टिप्पणी
[वाद जल्प वितण्डा में जल्प और वितण्डा अनुपादेय हैं, और वाद उपादेय है। वरुणेन= “आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषयः पयः” (अथर्व० ११/५/१४) में आचार्य को वरुण भी कहा है। तथा “अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद् यदैच्छत् प्रजापतौ” (अथर्व० ११/५/१५), इस मन्त्र में भी वरुण को आचार्य कहा है। त्रिते= “त्रितः तीर्णतमो मेधया” (निरु० ४/१/६)। तथा त्रि+तन् (विस्तारे)। स्वप्नमदधुः=आदित्य ब्रह्मचारियों जैसे पवित्र लोगों के स्वप्नों में परमेश्वर पर ही ध्यान होता है, न कि सांसारिक पदार्थों पर। यह है परमेश्वर में स्वप्नों का स्थापन।]
विषय
स्वप्नों का न आना, या उत्कृष्ट स्वप्नों का आना
पदार्थ
१. (एताम्) = इस स्वप्नवृत्ति को (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में लगे हुए लोग (न विदुः) = नहीं जानते। इन पितरों को अशुभ स्वप्न नहीं आते (उत) = और वे देवा:-देव भी इस स्वप्नवृत्ति को नहीं जानते, (येषाम्) = जिन देवों को (इदम् अन्तरा) = इस हृदयाकाश में (जल्पि:) = प्रभु से वार्तालाप (चरति) = होता है। २. ये (वरुणेन अनुशिष्टा:) = पापों के निवारक प्रभु से अनुशिष्ट हुए-हुए (आदित्यास:) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले (नर:) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले लोग पहले तो स्वप्नों को देखते ही नहीं, देखते भी हैं तो (आप्त्ये) = प्रभु को प्राप्त करनेवालों में (उत्तम त्रिते) = काम, क्रोध, लोभ को तैर जानेवाले चित्त के विषय में (स्वप्नम् अदधुः) = स्वप्न को धारण करते हैं। इन्हें स्वप्न में 'त्रित आप्त्य' का ही दर्शन होता है। ये उस-जैसा बनने का ही स्वप्न लेते हैं।
भावार्थ
हृदयाकाश में प्रभु से बात करनेवाले पितर व देव अशुभ स्वप्नों को नहीं देखते। इन्हें 'त्रित आप्त्यों' के विषय में ही स्वप्न आते हैं और ये वैसा ही बनने का स्वप्न लेते हैं।
विषय
विद्वान को अप्रमाद का उपदेश।
भावार्थ
(पितरः) पितृगण (उत) और (देवा) देवगण भी (एतां न विदुः) इस निद्रावृत्ति को नहीं जानते (येषां) जिनकी (जल्पिः) परस्पर वार्तालाप (इदम्) यह, इस आत्मा के (अन्तरा) भीतर (चरति) चला करती है। (आदित्यासः नरः) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष (वरुणेन अनुशिष्टाः) सर्वश्रेष्ठ परमात्मा से उपदेश प्राप्त करके (स्वप्नम्) आलस्य प्रमादयुक्त स्वप्न को (आप्त्ये त्रिते) आप्तों के हितकारी त्रित, तीनों वेदों के ज्ञाता पुरुष पर, या आप्त=आत्मा के हितकारी (त्रिते) ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और मन सब पर वश करने वाले प्राण में (आदधुः) धारण करते हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘नेतां’, (च०) ‘अरुणेन’ (द्वि०) ‘अवान्तरेद’ इति क्वचित्। ‘अरुणेन’ पैप्प० सं०। (द्वि०) ‘जल्प्याश्च’, (तृ०) ‘त्रिते स्वप्नमरिदिध्हा प्रतेनरा आदि–’ इति पैप्प० सं०। ‘यैषां’ इति ह्विटन्यनुमितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यमऋषिः। दुःखनाशनो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svapna
Meaning
Neither pranas nor the senses and mind of people in whose personality confusion and verbosity prevails reach this mystery of dreams. Only brave men and brilliant scholars of Aditya order taught and trained by Varuna, master of right choice and judgement, concentrate and direct their dream onto the lord of three worlds, lover and saviour of the men of divine attainments.
Translation
The elders know it not, nor the enlightened ones, whose muttering goes on within it. Instructed by the venerable Lord, the old sages have put dream into the man with threefold suffering.
Translation
This tremendously speedy sleep keeping its power to affect all comes to mind etc, organs from Asuras, the germs and diseases. The thirty three powers of the nature enjoying splendour give supremacy to this sleep,
Translation
Neither the elders nor the learned, in whose secret recesses of the heart this talk goes on, know the secret thereof. The solar nerves i.e., on the right side of the body, directed by the lunar ones i.e., on the left side of the body, have installed sleep in the threefold Aptya.
Footnote
Even the good become vitiated in the company of the wicked. Or All the divine powers, working, in the body, get tired and weary and fall a prey to sleep and dreaminess to get relief from tension. Even the good and the noble souls loose all their control over their sub-conscious mind in that state.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(न) निषेधे (एताम्) वक्ष्यमाणां वाणीम् (विदुः) जानन्ति (पितरः) पालकाः (न) निषेधे (उत) अपि च (देवाः) विद्वांसः (येषाम्) (जल्पिः) जल्प व्यक्तायां वाचि इन्-प्रत्ययः। वाणी (चरति) विचरति। वर्तते (इदम् अन्तरा) अस्य जगतो मध्ये (त्रिते) अ० ५।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-ड प्रत्ययः। लोकत्रयविस्तारके परमात्मनि (स्वप्नम्) (दधुः) धारितवन्तः (आप्त्ये) आप्तानां सत्यवक्तॄणां हिते (नरः) नेतारः (आदित्यासः) अखण्डव्रतिनः (वरुणेन) श्रेष्ठेन परमेश्वरेण (अनुशिष्टाः) निरन्तरमुपदिष्टाः ॥
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