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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - पिपीलिकमध्यानिचृद्गायत्री सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त

    सू॒रिर॑सि वर्चो॒धा अ॑सि तनू॒पानो॑ ऽसि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सू॒रि: । अ॒सि॒ । व॒र्च॒:ऽधा: । अ॒सि॒ । त॒नू॒ऽपान॑: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूरिरसि वर्चोधा असि तनूपानो ऽसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूरि: । असि । वर्च:ऽधा: । असि । तनूऽपान: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    हे राजन् ! तू (सूरिः) विद्वान् (असि) है, (वर्चोधाः) अन्न वा तेज का धारण करनेवाला (असि) है, (तनूपानः) हमारे शरीरों का रक्षक (असि) है। (श्रेयांसम्) अधिक गुणी [परमेश्वर वा मनुष्य] को (आप्नुहि) तू प्राप्त कर, (समम्) तुल्यबलवाले [मनुष्य] से (अति=अतीत्य) बढ़कर (क्राम) पद आगे बढ़ा ॥४॥

    भावार्थ - विद्वान् प्रतापी राजा अन्न आदि से अपनी प्रजा की सदा रक्षा और उन्नति करे ॥४॥

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