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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    सूक्त - चातनः देवता - शालाग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त

    अ॒सौ यो अ॑ध॒राद्गृ॒हस्तत्र॑ सन्त्वरा॒य्यः॑। तत्र॒ सेदि॒र्न्यु॑च्यतु॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ । य: । अ॒ध॒रात् । गृ॒ह: । तत्र॑ । स॒न्तु॒ । अ॒रा॒य्य᳡: । तत्र॑ । से॒दि: । नि । उ॒च्य॒तु॒ । सर्वा॑: । च॒ । या॒तु॒ऽधा॒न्य᳡: ॥१४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ यो अधराद्गृहस्तत्र सन्त्वराय्यः। तत्र सेदिर्न्युच्यतु सर्वाश्च यातुधान्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असौ । य: । अधरात् । गृह: । तत्र । सन्तु । अराय्य: । तत्र । सेदि: । नि । उच्यतु । सर्वा: । च । यातुऽधान्य: ॥१४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (असौ) वह (यः) जो (गृहः) घर (अधरात्) नीचे की ओर है, (तत्र) वहाँ पर (अराय्यः) निर्धनतावाली [विपत्तियाँ] (सन्तु) रहें। (तत्र) वहाँ ही (सेदिः) महामारी आदि क्लेश (नि+उच्यतु) नित्य निवास करे, (च) और (सर्वाः) सब (यातुधान्यः) पीड़ा देनेवाली क्रियाएँ भी ॥३॥

    भावार्थ - जैसे राजा चौर आदि दुष्टों को पकड़कर कारागार में रखता है, ऐसे ही मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक निर्धनता, दुर्भिक्षता और दुःखदायी रोगों को हटाकर आनन्दित रहना चाहिये ॥३॥

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