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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    सूक्त - चातनः देवता - शालाग्निः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त

    भू॑त॒पति॒र्निर॑ज॒त्विन्द्र॑श्चे॒तः स॒दान्वाः॑। गृ॒हस्य॑ बु॒ध्न आसी॑नास्ता॒ इन्द्रो॒ वज्रे॒णाधि॑ तिष्ठतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भू॒त॒ऽपति॑: । नि: । अ॒ज॒तु॒ । इन्द्र॑: । च॒ । इ॒त: । स॒दान्वा॑: । गृ॒हस्य॑ । बु॒ध्ने । आसी॑ना: । ता: । इन्द्र॑: । वज्रे॑ण । अधि॑ । ति॒ष्ठतु॒ ॥१४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूतपतिर्निरजत्विन्द्रश्चेतः सदान्वाः। गृहस्य बुध्न आसीनास्ता इन्द्रो वज्रेणाधि तिष्ठतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूतऽपति: । नि: । अजतु । इन्द्र: । च । इत: । सदान्वा: । गृहस्य । बुध्ने । आसीना: । ता: । इन्द्र: । वज्रेण । अधि । तिष्ठतु ॥१४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (भूतपतिः) न्याय वा सत्य वा प्राणियों का रक्षक (च) और (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवाला पुरुष (सदान्वाः) सदा चिल्लानेवाली, अथवा, दानवों दुष्कर्मियों के साथ रहनेवाली [निर्धनता की पीड़ाओं] को (इतः) यहाँ से (निर्+अजतु) निकाल देवे। (इन्द्रः) वही महाप्रतापी पुरुष (गृहस्य) [हमारे] घर की (बुध्ने) जड़ में (आसीनाः) बैठी हुई (ताः) उन [पीड़ाओं] को (वज्रेण) वज्र [कुल्हाड़े आदि] से (अधि+तिष्ठतु) वश में करे ॥४॥

    भावार्थ - क्लेशों के भीतरी कारणों को भली-भाँति विचारकर राजा और गृहपति सब पुरुषों को सचेत करके क्लेशों से बचावें और आनन्द में रक्खें ॥४॥

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