अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
ऋषिः - चातनः
देवता - शालाग्निः
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त
70
भू॑त॒पति॒र्निर॑ज॒त्विन्द्र॑श्चे॒तः स॒दान्वाः॑। गृ॒हस्य॑ बु॒ध्न आसी॑नास्ता॒ इन्द्रो॒ वज्रे॒णाधि॑ तिष्ठतु ॥
स्वर सहित पद पाठभू॒त॒ऽपति॑: । नि: । अ॒ज॒तु॒ । इन्द्र॑: । च॒ । इ॒त: । स॒दान्वा॑: । गृ॒हस्य॑ । बु॒ध्ने । आसी॑ना: । ता: । इन्द्र॑: । वज्रे॑ण । अधि॑ । ति॒ष्ठतु॒ ॥१४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
भूतपतिर्निरजत्विन्द्रश्चेतः सदान्वाः। गृहस्य बुध्न आसीनास्ता इन्द्रो वज्रेणाधि तिष्ठतु ॥
स्वर रहित पद पाठभूतऽपति: । नि: । अजतु । इन्द्र: । च । इत: । सदान्वा: । गृहस्य । बुध्ने । आसीना: । ता: । इन्द्र: । वज्रेण । अधि । तिष्ठतु ॥१४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
निर्धनता मनुष्यों को प्रयत्न से नष्ट करनी चाहिये।
पदार्थ
(भूतपतिः) न्याय वा सत्य वा प्राणियों का रक्षक (च) और (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवाला पुरुष (सदान्वाः) सदा चिल्लानेवाली, अथवा, दानवों दुष्कर्मियों के साथ रहनेवाली [निर्धनता की पीड़ाओं] को (इतः) यहाँ से (निर्+अजतु) निकाल देवे। (इन्द्रः) वही महाप्रतापी पुरुष (गृहस्य) [हमारे] घर की (बुध्ने) जड़ में (आसीनाः) बैठी हुई (ताः) उन [पीड़ाओं] को (वज्रेण) वज्र [कुल्हाड़े आदि] से (अधि+तिष्ठतु) वश में करे ॥४॥
भावार्थ
क्लेशों के भीतरी कारणों को भली-भाँति विचारकर राजा और गृहपति सब पुरुषों को सचेत करके क्लेशों से बचावें और आनन्द में रक्खें ॥४॥
टिप्पणी
४–भूतपतिः। भू सत्तायां प्राप्तौ च–कर्त्तरि क्त। भूतस्य न्यायस्य सत्यस्य वा, अथवा भूतानां प्राणिनां पालकः पुरुषः। निर्। निसार्य। अजतु। प्रेरयतु। बहिष्करोतु। इन्द्रः। अ० १।२।३। इदि परमैश्वर्ये–रन्। इन्दतेर्वैश्वर्यकर्मण इदञ्च्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दरयिता च यज्वानाम् निरु० १०।८। परमैश्वर्यवान् महात्मा। इतः। अस्मात् स्थानात्। सदान्वाः। म० १। सदा+नोनुवाः। आक्रोशकारिणीः, यद्वा। स+दानवाः, दानवैः सह वर्त्तमानाः पीडाः ॥
विषय
वाग्दोष का दूरीकरण
पदार्थ
१.(भूतपति:) = सब प्राणियों का रक्षक (च) = वह (इन्द्र:) = [इरा दृणाति] भूमि का, भौतिक भोगों का विदारक देव इन्द्र (सदान्वः) = [सदा नोनूयमाना आक्रोशकारिणी:] सदा चिल्लाने व अपशब्द बोलनेवाली इन स्त्रियों को (इत:) = यहाँ-मेरे घर से (निरजतु) = बाहर क्षिप्त करे। मेरे घर से इनका सम्बन्ध न हो। २. (गृहस्य) = घर के (बुध्ने) = मूल में (आसीना:) = बैठी हुई (ता:) = उनको (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (वज्रेण) = क्रियाशीलता रूप वज्र से (अधितिष्ठतु) = अधिष्ठित करे। घर का आधार गृहिणियाँ ही होती हैं, इसी से उन्हें 'घर के आधार में बैठी हुई' कहा गया है। इनमें दोष दो कारणों से उत्पन्न होते हैं-[क] एक तो पुरुष की अजितेन्द्रिता से और [ख] दुसरे अकर्मण्यता से। 'इन्द्र' शब्द प्रथम कारण का निराकरण करता है और वजेण' दूसरे कारण का। पुरुष जितेन्द्रिय हो तथा स्त्रियों को अकर्मण्य न होने दे तो स्त्रियों व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाती हैं।
भावार्थ
पुरुष जितेन्द्रिय बनकर स्त्रियों को कार्य में रत रखने से उनके वाग्दोषों को दूर कर पाता है।
भाषार्थ
(भूतपतिः) भूतभौतिक जगत् का पति परमेश्वर [निजकृपा द्वारा] (इतः) यहाँ से, (च) और (इन्द्रः) इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीवात्मा निज अध्यात्म शक्ति द्वारा, (सदान्वाः) सदा कष्टसूचक आवाजें पैदा करानेवाली स्त्री-जातिक रोग-कीटाणुओं को (निर् अजतु) निकाल फेंके। (गृहस्य बुध्ने) घर के मूल में अर्थात् अधोदेश में (आसीनाः ताः) उन आसीन हुई स्त्रीजातिक१ रोग-कीटाणुओं को (इन्द्रः) सूर्य (वज्रेण) निज किरणोंरूपी वज्र द्वारा (अधि तिष्ठतु) कुचले ।
टिप्पणी
[मन्त्र (३) में और मन्त्र (४) में "अधराद् गृहः" तथा "गृहत्य बुध्ने" का अभिप्राय एक ही है। सूर्य की किरणें रोग-कीटाणुओं का नाश करती हैं, "उद्यन्त्सूर्यः क्रिमीन् हन्तु निम्लोचन् हुन्तु रश्मिभि:" (अथर्व० २।३२।१)।] [१. जब मादा रोग-कीटाणु कुचले गये, तब नरकीटाणु पैदा ही कहाँ से होने हुए।]
विषय
बुरी आदतों और कुस्वभाव के पुरुषों का त्याग ।
भावार्थ
(भूतपतिः) समस्त प्राणियों और पञ्चभूतों की शक्तियों का पति, पालन और वश करने वाला परमेश्वर और (इन्द्रः) ऐश्वर्यशील, सूर्य के समान प्रकाशमान आत्मा (सदान्वाः) सदा कष्टदायक विपत्तियों को (इतः) हमारे इस शरीर रूप घर से (निर् अजतु) निकाल दे, या सदा रुलाने वाली पीड़ाओं, रोग-व्याधियों को दूर करे और जो (गृहस्य) शरीर रूप घर के (बुध्ने) नींव के भाग अर्थात् सिर आदि में (आसीनाः) बैठी हों (ताः) उनको भी (इन्द्रः) आत्मिक शक्तिसम्पन आत्मा (वज्रेण) दूर करने के उपाय, ब्रह्मचर्य रूप वज्र से (अधि तिष्ठतु) उन पर वश करे ।
टिप्पणी
‘ता वज्रेणाधि तिष्ठतु’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । शालाग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः । अग्निभूतपनीन्द्रादिस्तुतिः । १, ३, ५, ६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ४ उपरिष्टाद बृहती। षडृर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
We Counter Negativities
Meaning
And may Indra, master ruler and protector of living beings, expel all evil forces and destructive tendencies, and even if they happen to be deep rooted even at the bottom of our home land and tradition, let Indra rule and eradicate them by the thunderbolt of his law and power.
Translation
May the Lord of beings and resplendent Lord turn these everbewailers out of this place. May Indra, the resplendent Lord with his adamantine bolt destroy those, who wrongfully have taken the possession of the floor of this house.
Translation
Let the Lord of creatures throw away these trouble of poverty from here and may mighty ruler eradicate with his weapon of effort those indigent tendencies which have got their roots in our abode.
Translation
May God, the Lord of creatures, and soul, drive away hence these calamities. May soul control with the strength of celibacy, these maladies, that reside in the head, the pivot of the body, the home of the soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–भूतपतिः। भू सत्तायां प्राप्तौ च–कर्त्तरि क्त। भूतस्य न्यायस्य सत्यस्य वा, अथवा भूतानां प्राणिनां पालकः पुरुषः। निर्। निसार्य। अजतु। प्रेरयतु। बहिष्करोतु। इन्द्रः। अ० १।२।३। इदि परमैश्वर्ये–रन्। इन्दतेर्वैश्वर्यकर्मण इदञ्च्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दरयिता च यज्वानाम् निरु० १०।८। परमैश्वर्यवान् महात्मा। इतः। अस्मात् स्थानात्। सदान्वाः। म० १। सदा+नोनुवाः। आक्रोशकारिणीः, यद्वा। स+दानवाः, दानवैः सह वर्त्तमानाः पीडाः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ভূতপতিঃ) ভূতভৌতিক জগতের পতি পরমেশ্বর [নিজকৃপা দ্বারা] (ইতঃ) এখান থেকে, (চ) এবং (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্রিয়-সমূহের অধিষ্ঠাতা জীবাত্মা নিজ আধ্যাত্ম শক্তি দ্বারা, (সদান্বাঃ) সদা কষ্টসূচক শব্দ উৎপন্নকারী স্ত্রী-জাতক রোগ-জীবাণুকে (নির্ অজতু) নিষ্কাশিত করুক। (গৃহস্য বুধ্নে) ঘরের মূলে অর্থাৎ অধোদেশে (আসীন তাঃ) সেই আসীন/স্থিত স্ত্রী জাতিক১ রোগ-জীবাণুকে (ইন্দ্রঃ) সূর্য (বজ্রেণ) নিজ কিরণরূপী বজ্র দ্বারা (অধি তিষ্ঠতু) পিষ্ট করুক।
टिप्पणी
[মন্ত্র (৩) এ এবং মন্ত্র (৪) এ "অধরাদ্ গৃহ" এবং "গৃহস্য বুধ্নে" এর অভিপ্রায় এক। সূর্যের কিরণ রোগ-জীবাণুর নাশ করে, "উদ্যন্ত্সূর্যঃ ক্রিমীন্ হন্তু নিম্রোচন হন্তু রশ্মিভিঃ" (অথর্ব০ ২।৩২।১) ।] [১. যখন স্ত্রী রোগ-জীবাণু পিষ্ট হবে, তাহলে নরজীবাণু উৎপন্ন কোথায় থেকে উৎপন্ন হবে।]
मन्त्र विषय
অলক্ষ্মীর্মনুষ্যৈঃ প্রয়ত্নেন নাশনীয়া
भाषार्थ
(ভূতপতিঃ) ন্যায় বা সত্য বা প্রাণীদের রক্ষক (চ) এবং (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্যবান পুরুষ (সদান্বাঃ) সদা আক্রোশকারী, অথবা, দানব দুষ্কর্মীদের সাথে বিদ্যমান [নির্ধনতার পীড়া] কে (ইতঃ) এখান থেকে (নির্+অজতু) নিষ্কাশিত করুক। (ইন্দ্রঃ) সেই মহাপ্রতাপশালী পুরুষ (গৃহস্য) [আমাদের] ঘরের (বুধ্নে) মূলে (আসীনাঃ) স্থিত (তাঃ) সেই [পীড়া] কে (বজ্রেণ) বজ্র [কুড়ুল আদি] দ্বারা (অধি+তিষ্ঠতু) বশবর্তী করুক ॥৪॥
भावार्थ
ক্লেশের আভ্যন্তরীণ কারণ-সমূহকে উত্তমরূপে বিচার করে, রাজা ও গৃহপতি সব পুরুষদের সচেতন করে ক্লেশ থেকে রক্ষা করুক এবং আনন্দে রাখুক ॥৪॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal