अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
ऋषिः - चातनः
देवता - शालाग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त
63
परि॒ धामा॑न्यासामा॒शुर्गाष्ठा॑मिवासरन्। अजै॑षं॒ सर्वा॑ना॒जीन्वो॒ नश्य॑ते॒तः स॒दान्वाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । धामा॑नि । आ॒सा॒म् । आ॒शु: । गाष्ठा॑म्ऽइव । अ॒स॒र॒न् । अजै॑षम् । सर्वा॑न् । आ॒जीन् । व॒: । नश्य॑त । इ॒त: । स॒दान्वा॑: ॥१४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
परि धामान्यासामाशुर्गाष्ठामिवासरन्। अजैषं सर्वानाजीन्वो नश्यतेतः सदान्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । धामानि । आसाम् । आशु: । गाष्ठाम्ऽइव । असरन् । अजैषम् । सर्वान् । आजीन् । व: । नश्यत । इत: । सदान्वा: ॥१४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
निर्धनता मनुष्यों को प्रयत्न से नष्ट करनी चाहिये।
पदार्थ
[वे विद्वन्] (आसाम्) इन [पीड़ाओं] के (धामानि) घरों को (परि) सब प्रकार (असरन्) पहुँच गये हैं। (आशुः इव) जैसे शीघ्रगामी घोड़ा (गाष्ठाम्) अपने गमनस्थान [थान] पर। (वः) तुम्हारे (सर्वान्) सब (आजीन्) संग्रामों को (अजैषम्) मैंने जीत लिया है, (सदान्वाः) हे सदा चिल्लानेवाली, अथवा, दानवों के साथ रहनेवाली [पीड़ाओ !] (इतः) यहाँ से (नश्यत) चंपत हो जाओ ॥६॥
भावार्थ
जिस प्रकार पूर्वज विद्वान् लोग क्लेशों के कारण शीघ्र जान चुके हैं, जैसे कि घोड़ा मार्ग से लौटते समय अपने थान की ओर शीघ्र चलता है, अथवा, जैसे शूरवीर पुरुष संग्राम में शत्रुओं को हराकर शीघ्र विजयी होता है, वैसे ही मनुष्य आयी हुयी विपत्तियों का कारण सावधानी से जानकर शीघ्र प्रतीकार करे और सुख से आयु को भोगें ॥६॥ (असरन्) के स्थान पर सायणभाष्य में [असरम्] और (गाष्ठाम्) के स्थान पर [ग्लाष्ठाम्] पद व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
६–परि। परितः। सर्वतः। धामानि। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति धाञ्–मनिन्। धीयन्ते द्रव्यजातानि यत्र। गृहाणि। जन्मानि। कारणानि। आसाम्। पूर्वोक्तानां पीडानाम्। आशुः। कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण्। उ० १।१। इति अशू व्याप्तौ, यद्वा, अश भोजने–उण्। अश्वनाम निघ० १।१४। अश्वः कस्मादश्नुतेऽध्वानं महाशनो भवतीति वा–निरु० २।२७। शीघ्रगामी घोटकः। गाष्ठाम्। गाङ् गतौ–क्विप्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–विच्। गमनाय गमनाद्वा तिष्ठति यत्र। गमनस्थानम्। असरन्। सृ गतौ भ्वादिः लङ्। अगच्छन् ते विद्वांसः। अजैषम्। जि जये–लुङ्। अहं जितवानस्मि। आजीन्। अज्यतिभ्यां च। उ० ४।१३१। इति अज गतिक्षेपणयोः–इण्। वीभावाभावः। आजौ, संग्रामनामसु–निघ० २।१७। अजन्ति गच्छन्ति यत्र विजयश्रियं योद्धारः, क्षिपन्ति शस्त्राणि यत्र। संग्रामान्। वः। युष्माकम्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
विषय
संग्राम-विजय
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (आशुः) = शीघ्रगामी अश्व (गाष्ठाम्) = [परिधावनेन ग्लानः सन् यत्र तिष्ठति सा गाष्ठा:-आञ्यन्तः काष्ठाः] लक्ष्य स्थान पर पहुँचता है, इसीप्रकार मैं (आसाम्) = इन आक्रोशकारिणी स्त्रियों के (धामानि) = तेजों को (परि असरम्) = आक्रान्त करता हूँ। हे आक्रोश करनेवाली स्त्रियो ! (व:) = तुम्हारे (सर्वान् आजीन्) = सब संग्रामों को (अजैषम्) = मैं जीतता हूँ-तुम्हें पराजित करता हूँ, अत: हे (सदान्वाः) = सदा आक्रोशकारिणी स्त्रियो। (इतः) = यहाँ से (नश्यत) = नष्ट हो जाओ। पुरुषों को चाहिए कि स्त्रियों की इस आक्रोशवृत्ति को नष्ट करने के लिए तेजस्विता से उन्हें प्रभावित करने का प्रयत्न करें। २. स्त्री का सबसे बड़ा दोष 'सदा बोलते रहना व कठोर बोलना है, अत: इनके इन दोषों को दूर करना आवश्यक है।
भावार्थ
पति पत्नी के आक्रोश को अपनी तेजस्विता से दूर करे। इसप्रकार ग्रहदोषों को दूर करनेवाला 'चातन' बने।
विशेष
सम्पूर्ण सुक्त गृहिणी के दोषा से घर के दुषण का चित्रण करके गृहिणी के दोषों को दूर करने पर बल देता है। दोषों को दूर करके अपनी उन्नति करनेवाला 'ब्रह्मा' [वृहि वृद्धौ] अगले सूक्तों का ऋषि है। यह सर्वप्रथम अभय की प्रार्थना करता है। दोषयुक्त जीवन में ही भय है, निर्दोष जीवन निर्भय है, अत: दोषों का नाश करनेवाला 'चातन' अब वृद्धि को प्राप्त करके 'ब्रह्मा' हो जाता है और प्रार्थना करता है -
भाषार्थ
(आसाम्) इन सदान्वाओं के (धामानि) स्थानों को (परिअसरम्) मैंने [शीघ्र] घेर लिया है, (इव) जैसेकि (आशुः) शीघ्रगामी अश्व (गाष्ठाम्= काष्ठाम्) युद्धभूमि के अन्त तक शीघ्र पहुँच जाता है। तथा हे सदान्वाओ ! (वः) तुम्हारे (सर्वान् आजीन्) सब युद्धों को (अजैषम्) मैंने जीत लिया है। अत: (सदान्वाः) हे सदान्वाओ! (इतः) यहां से (नश्यत) तुम नष्ट हो जाओ।
टिप्पणी
[काष्ठा=आज्यन्तः, संग्रामान्तः (निरुक्त २।५।१६)। आशुः अश्वनाम (निघं० १।१४) परिअसरम् = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा की उक्ति है। सदान्वाओं के स्थान हैं, शरीर, इन्द्रियाँ और मन। इनमें मादा रोग-कीटाणुओं का निवास होता है। अध्यात्मशक्ति से सम्पन्न जीवात्मा इनके धामों को घेरकर इन्हें नष्ट कर देता है। मन्त्र में आध्यात्मिक देवासुर संग्राम अभिप्रेत है।]
विषय
बुरी आदतों और कुस्वभाव के पुरुषों का त्याग ।
भावार्थ
हे (सदान्वाः) सदा कलह और शोर गुल या रोना आदि मचाने वाली आपत्तियो ! (वः) तुम्हारी (सर्वान्) सब (आजीन्) आक्रमणों और आगमन के उपायों को मैं (अजैषं) जीत चुका हूं, इस लिये अब तुम (इतः) यहां से (नश्यत) भाग जाओ ? हे पुरुषो ! जिस प्रकार (आशुः) शीघ्रगामी घोड़ा (गाष्टाम् इव) अपनी परम अवधि पर पहुंच जाता है उसी प्रकार विद्वान् लोग (आसाम्) इन सब पीड़ाकारिणी विपत्तियों के (धामानि) आश्रयस्थानों तक (परि असरन्) इनका पीछा करें, आक्रमण करें और उन स्थानों से उनको निकाल दें ।
टिप्पणी
‘मिवासरम्’ इति ह्विटनीकामितः पाठः। ‘आशुर्ग्लाष्ठामिवासरन्’ इति सायणाभिमतः पाठः। ‘आशुर्गाष्ठामित्रासरम्’ इति पैप्प० सं०। ‘आशुर्काष्ठाम्’ इति क्काचित्कः पाठः । ‘ग्लाष्ठा गन्तव्योवधिः’ ‘आज्यन्तः काष्ठापरपर्यायः’ इति सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । शालाग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः । अग्निभूतपनीन्द्रादिस्तुतिः । १, ३, ५, ६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ४ उपरिष्टाद बृहती। षडृर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
We Counter Negativities
Meaning
Just as a race horse reaches and wins its goal, so having reached the central cause of conflict and the sources of evil and demonic forces and tendencies in humanity, O evil forces, I have won all your conflicts and battles against us. Now get off and disappear for ever from here.
Translation
As a swift courser reaches its post, so I have gone over all their dwelling places. I have won all the battles against you, O infectious diseases, the Sadānvāh) vanish from here.
Translation
Let these ferocious troubles flee away as the learned persons have reached the roof-cause whence they arise out. We overcome all the battles of the calamities as a speedy horse goes to his stable.
Translation
Just as a fleet-foot horse reaches his destination, so have I discovered the real causes of these maladies. O maladies, I have conquered ye in all struggles, get ye away from here!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६–परि। परितः। सर्वतः। धामानि। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति धाञ्–मनिन्। धीयन्ते द्रव्यजातानि यत्र। गृहाणि। जन्मानि। कारणानि। आसाम्। पूर्वोक्तानां पीडानाम्। आशुः। कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण्। उ० १।१। इति अशू व्याप्तौ, यद्वा, अश भोजने–उण्। अश्वनाम निघ० १।१४। अश्वः कस्मादश्नुतेऽध्वानं महाशनो भवतीति वा–निरु० २।२७। शीघ्रगामी घोटकः। गाष्ठाम्। गाङ् गतौ–क्विप्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–विच्। गमनाय गमनाद्वा तिष्ठति यत्र। गमनस्थानम्। असरन्। सृ गतौ भ्वादिः लङ्। अगच्छन् ते विद्वांसः। अजैषम्। जि जये–लुङ्। अहं जितवानस्मि। आजीन्। अज्यतिभ्यां च। उ० ४।१३१। इति अज गतिक्षेपणयोः–इण्। वीभावाभावः। आजौ, संग्रामनामसु–निघ० २।१७। अजन्ति गच्छन्ति यत्र विजयश्रियं योद्धारः, क्षिपन्ति शस्त्राणि यत्र। संग्रामान्। वः। युष्माकम्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(আসাম্) এই সদান্বাসমূহের (ধামানি) স্থানসমূহকে (পরি অসরম্) আমি [শীঘ্র] ঘিরে নিয়েছি, (ইব) যেমন (আশুঃ) শীঘ্রগামী অশ্ব (গাষ্ঠাম্=কাষ্ঠাম্) যুদ্ধভূমির শেষ পর্যন্ত শীঘ্র পৌঁছে যায়। এবং হে সদান্বাসমূহ ! (বঃ) তোমাদের (সর্বান্ আজীন্) সমস্ত যুদ্ধকে (অজৈষম্) আমি জয় করে নিয়েছি। অতঃ (সদান্বাঃ) হে সদান্বাসমূহ! (ইতঃ) এখান থেকে (নশ্যত) তোমরা নষ্ট হয়ে যাও/বিনষ্ট হও ।
टिप्पणी
[কাষ্ঠা=আজ্যন্তঃ, সংগ্রামান্তঃ (নিরুক্ত ২।৫।১৬) আশুঃ অশ্বনাম (নিঘং০ ১।১৪) পরি অসরম্=ইন্দ্রিয়-সমূহের অধিষ্ঠাতা জীবাত্মার উক্তি। সদান্বার স্থান হল, শরীর, ইন্দ্রিয় এবং মন। এগুলিতে নারী রোগ-জীবাণুর নিবাস হয়। আধ্যাত্মিক শক্তিতে সম্পন্ন জীবাত্মা এদের ধামকে ঘিরে এদের নষ্ট করে দেয়। মন্ত্রে আধ্যাত্মিক দেবাসুর সংগ্রাম অভিপ্রেত হয়েছে।]
मन्त्र विषय
অলক্ষ্মীর্মনুষ্যৈঃ প্রয়ত্নেন নাশনীয়া
भाषार्थ
[সেই বিদ্বান্] (আসাম্) এই [পীড়া-সমূহের] (ধামানি) গৃহসমূহে (পরি) সব প্রকারে (অসরন্) পৌঁছে গিয়েছে। (আশুঃ ইব) যেমন শীঘ্রগামী অশ্ব (গাষ্ঠাম্) নিজের গমনস্থানে। (বঃ) তোমার (সর্বান্) সব (আজীন্) সংগ্রামকে (অজৈষম্) আমি জয় করেছি, (সদান্বাঃ) হে সদা উল্লাসকারী, অথবা, দানবদের সাথে অবস্থানকারী [পীড়া-সমূহ !] (ইতঃ) এখান থেকে (নশ্যত) পালিয়ে যাও ॥৬॥
भावार्थ
যেভাবে পূর্বজ বিদ্বানগণ ক্লেশের কারণ শীঘ্র জেনে নিয়েছেন, যেমন ঘোড়া মার্গ থেকে ফেরার সময় নিজের স্থানের দিকে শীঘ্র চলে যায়, অথবা, যেমন বীর পুরুষ সংগ্রামে শত্রুদের পরাজিত করে শীঘ্র বিজয়ী হয়, সেভাবেই মনুষ্য আগত বিপত্তির কারণ সাবধানতাপূর্বক জ্ঞাত হয়ে শীঘ্র প্রতীকার করুক এবং সুখপ্রদ আয়ু ভোগ করুক ॥৬॥ (অসরন্) এর স্থানে সায়ণভাষ্যে [অসরম্] ও (গাষ্ঠাম্) এর স্থানে [গ্লাষ্ঠাম্] পদ ব্যাখ্যাত আছে॥
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