अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
ऋषिः - चातनः
देवता - शालाग्निः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त
61
निर्वो॑ गो॒ष्ठाद॑जामसि॒ निरक्षा॒न्निरु॑पान॒शात्। निर्वो॑ मगुन्द्या दुहितरो गृ॒हेभ्य॑श्चातयामहे ॥
स्वर सहित पद पाठनि । व॒: । गो॒ऽस्थात् । अ॒जा॒म॒सि॒ । नि: । अक्षा॑त् । नि: । उ॒प॒ऽआ॒न॒सात् । नि: । व॒: । म॒गु॒न्द्या॒: । दु॒हि॒त॒र॒: । गृ॒हेभ्य॑: । चा॒त॒या॒म॒हे॒ ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्वो गोष्ठादजामसि निरक्षान्निरुपानशात्। निर्वो मगुन्द्या दुहितरो गृहेभ्यश्चातयामहे ॥
स्वर रहित पद पाठनि । व: । गोऽस्थात् । अजामसि । नि: । अक्षात् । नि: । उपऽआनसात् । नि: । व: । मगुन्द्या: । दुहितर: । गृहेभ्य: । चातयामहे ॥१४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
निर्धनता मनुष्यों को प्रयत्न से नष्ट करनी चाहिये।
पदार्थ
(वः) तुमको (गोष्ठात्) [अपनी] गोठ अर्थात् वाचनालय वा गोशाला से (निर्+अजामसि) हम निकाले देते हैं, (अक्षात्) व्यवहार से (निर्) निकाले, (उपानसात्) अन्नगृह वा धान्य की गाड़ी से (निर्) निकाले देते हैं। (मगुन्द्याः) हे ज्ञान की मिथ्या करनेवाली [कुवासना वा निर्धनता] की (दुहितरः) पुत्रियो ! [पुत्रीसमान उत्पन्न पीड़ाओ] (वः) तुमको (गृहेभ्यः) [अपने] घरों से (निर्) निकालकर (चातयामहे) हम नाश करते हैं ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य धन के उपार्जन और व्यय करने में ऐसा प्रबन्ध करे कि पठन-पाठन, गौ आदि पशुओं, व्यापार और अन्न आदि में हानि न हो, किन्तु सब पदार्थों के यथावत् संग्रह से सर्वदा सुख की वृद्धि रहे ॥२॥
टिप्पणी
टिप्पणी–गोठ (गोष्ठ) शब्द राजस्थान में बातचीत के स्थान अर्थ में लाया जाता है। २–वः। युष्मान्। गोष्ठात्। सुपि स्थः। प० ३।२।४। इति गो+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–क। यद्वा। घञर्थे कः। अम्बाम्बगोभूमि०। पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। गावो वाचो धेन्वादिपशवो वा तिष्ठन्ति यत्र। गोष्ठ्याः। वाचनालयात्। गोशालायाः। निर्+अजामसि। अज गतिक्षेपणयोः। इदन्तो मसि। पा० ७।१।४६। इति मस् इत्यस्य इकारागमः। निरजामः। निः सारयामः। निर् निरजामसि। अक्षात्। अक्षू व्याप्तौ–पचाद्यच् घञ् वा। व्यवहारात् उपनसात्। अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः। पा० ५।४।१०७। इति अनस् शब्दात् टच् समासान्तः। अन जीवने–असुन्। अनः, अन्नम्। शकटम्। जन्म। अनसः समीपम् उपानसं धान्यगृहम्। यद्वा। अनोऽश्मायःसरसां जातिसंज्ञयोः। पा० ५।४।९४। इति तत्पुरुषे टच्। उपगतं च तद् अनश्च उपानसं धान्यपूर्णं शकटम्। तस्मात्। धान्यगृहात्। धान्यपूर्णशकटात्। मगुन्द्याः। मनु बोधे–ड+गुद्रि मिथ्योक्तौ–अच्, ङीप् च, छन्दसि रलोपः। मं ज्ञानं गुन्द्रयति मिथ्या वदति सा मगुन्द्री तस्याः। ज्ञाननाशयित्र्याः कुवासनाया निर्धनतायाः। दुहितरः। नप्तृनेष्टृ.....दुहितृ। उ० २।९५। इति दुह प्रपूरणे–तृन्, निपातनाद् गुणाभावः। दोग्धि प्रपूरयति कार्याणीति दुहिता। पुत्र्यः। पुत्रीवद् उत्पन्नाः। गृहेभ्यः। गेहे कः। पा० ३।१।१४४। इति ग्रह उपादाने–क। गेहात्। निर्। निःसार्य निःशेषेण वा। चातयामहे। चातयतिर्नाशने–निरु० ६।३०। नाशयामः ॥
विषय
गोष्ठ, अक्ष, उपानस व गृहों से अलग
पदार्थ
१. गतमन्त्र में स्त्री-दोषों का चित्रण हुआ है। उन दोषों से युक्त स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि (व:) = तुम्हें (गोष्ठात्) = गोष्ठ से (नि:अजामसि) = बाहर करते हैं। गोष्ठ शब्द का अर्थ पारिवारिक सम्बन्ध [Family connection] है। ऐसी स्त्रियों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध नहीं रखने चाहिएँ। २. (अक्षात्) = अक्ष से तुम्हें (नि:) = पृथक करते हैं। अक्ष शब्द का अर्थ 'ज्ञान' [knowledge] है। ३. उपानसात्-उपानस से नि: इन्हें पृथक करते हैं। 'उपानस्' का अर्थ है-गाड़ी में होनेवाला स्थान [The Space in a carriage]| इस स्थान से इन्हें पृथक् करते हैं, अर्थात् इनके साथ गाड़ी में यात्रा नहीं करते हैं। ४. 'मन्' धातु से 'उ' प्रत्यय करके 'म' शब्द बनता है । इसप्रकार 'म' का अर्थ ज्ञान है। यहाँ ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले आनन्द को 'म' कहा गया है। उस सब 'मम्' आनन्द [Happiness] को जो 'मुन्द्रयति' झुठला देती है, समास कर देती है वह 'मगुंद्री' है। इसपर बल देन के लिए मगुन्द्री की दुहिता[आनन्द को नष्ट करने वाली की बच्ची] इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। ये (मगुन्द्या: दुहितरः) = ज्ञानजनित आनन्द को बुरी तरह नष्ट करनेवाली स्त्रियो! (व:) = तुम्हें (गृहेभ्यः) = घरों से (नि:चातयामहे) बाहर विनष्ट करते हैं।
भावार्थ
गतमन्त्र में वर्णित दोषोंवाली स्त्रियों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित न किये जाएँ, उन्हें ज्ञान-चर्चाओं से पृथक् रक्खा जाए। उनके साथ गाड़ी में यात्रा न की जाए और इन ज्ञानविरोधिनी स्त्रियों को घरों से पृथक् ही रक्खा जाए।
भाषार्थ
हे रोग-कीटाणुओ ! (वः) तुम्हें (गोष्ठात्) गोशाला से (निर् अजामसि) हम निकालते हैं, (साक्षात्) शकट से (निर्) निकालते हैं, (उपानसात्) रसोई के पास से (निर्) निकालते हैं। (मगुन्द्याः दुहितरः) हे मगुन्दी की पुत्रियो ! (वः) तुम्हें (गृहेभ्यः) घरों से (चातयामहे) हम विनष्ट कर देते हैं।
टिप्पणी
[अजामसि = अज गतिक्षेपणयोः (भ्वादिः)। अक्ष = cart (आप्टे), अर्थात् शकट। अनस् =Kitchen (आप्टे), अर्थात् रसोई। मगुन्दी= मग गत्यर्थः + दीङ् क्षये (दिवादिः), अर्थात् गति का क्षय करनेवाली, गति अर्थात् शरीर की क्रियाशक्ति का विनाश करनेवाली, स्त्रीजातिक रोग-कीटाणु = germs। दुहितर:= नप्त्यः (मन्त्र १)। गृहेभ्यः = सालाम् (शालाम् ) मन्त्र (१)। दुहितरः तथा आगामी मन्त्रों में स्त्रीलिङ्गी प्रयोगों द्वारा स्त्रीजातिक रोग कीटाणु१ निश्चित होते हैं ।] [१. रोग-कीटाणु दो प्रकार के प्रतीत होते हैं, नर और मादा]
विषय
बुरी आदतों और कुस्वभाव के पुरुषों का त्याग ।
भावार्थ
हे (मगुन्द्याः) मगुन्दी मघ अर्थात् आनन्द या सुख का क्षय करने वाली कुवासना की (दुहितरः) कन्या रूप बुरी आदतों ! (वः) तुमको (गोष्ठाद्) गौ=वेदवाणी, ज्ञान-कथा और आत्मा के निवासस्थान, हृदयदेश से, गोशाला से गौओं के समान (निः अजामसि) हम निकाल देते हैं। (अक्षात् निः) और आनन्द, विनोद और व्यवहार या इन्द्रियगण से भी तुम्हें निकाल देते हैं, (उपानसात्) अनस् अर्थात् यज्ञस्थान या देह से भी (निः) दूर करते हैं और (गृहेभ्यः निः चातयामहे) अपने घरों से भी हम परे करते हैं। बुरी आदत और बुरी आदत वाले दोनों को उक्त स्थानों से निकाल देने का उपदेश है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘निर्योनिन्नृपा नच’, (च०) ‘चातयामसि’ इतिः पेप्प सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । शालाग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः । अग्निभूतपनीन्द्रादिस्तुतिः । १, ३, ५, ६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ४ उपरिष्टाद बृहती। षडृर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
We Counter Negativities
Meaning
From our stalls, assemblies and intellectual gatherings, from the code of our basic values of culture and manners, our mind and soul, and from our centres and spaces of economy, and from our home, we banish all ill begotten thoughts, feelings and attitudes like children of the devil.
Translation
We drive you out of cow-stalls, out of the game-hall, out of the grain-store, O daughters of malignance, we drive you out of our homes.
Translation
We drive away from our homes and destroy the poverties which are to be kept for off. We keep these rogues away from our cowshed, bodily habits and grain-stores.
Translation
O evil habits, the daughters of joy-killing ill desire, we drive you out of our heart, organs and the body. We Frighten and chase you from our-homes. [1]
Footnote
[1] Magundi has been interpreted by Griffith as a female evil spirit, perhaps the wife of Chanda and mother of his progeny. This explanation is illogical as there is no history in the Vedas. The word means ill desire that destroys out happiness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी–गोठ (गोष्ठ) शब्द राजस्थान में बातचीत के स्थान अर्थ में लाया जाता है। २–वः। युष्मान्। गोष्ठात्। सुपि स्थः। प० ३।२।४। इति गो+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–क। यद्वा। घञर्थे कः। अम्बाम्बगोभूमि०। पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। गावो वाचो धेन्वादिपशवो वा तिष्ठन्ति यत्र। गोष्ठ्याः। वाचनालयात्। गोशालायाः। निर्+अजामसि। अज गतिक्षेपणयोः। इदन्तो मसि। पा० ७।१।४६। इति मस् इत्यस्य इकारागमः। निरजामः। निः सारयामः। निर् निरजामसि। अक्षात्। अक्षू व्याप्तौ–पचाद्यच् घञ् वा। व्यवहारात् उपनसात्। अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः। पा० ५।४।१०७। इति अनस् शब्दात् टच् समासान्तः। अन जीवने–असुन्। अनः, अन्नम्। शकटम्। जन्म। अनसः समीपम् उपानसं धान्यगृहम्। यद्वा। अनोऽश्मायःसरसां जातिसंज्ञयोः। पा० ५।४।९४। इति तत्पुरुषे टच्। उपगतं च तद् अनश्च उपानसं धान्यपूर्णं शकटम्। तस्मात्। धान्यगृहात्। धान्यपूर्णशकटात्। मगुन्द्याः। मनु बोधे–ड+गुद्रि मिथ्योक्तौ–अच्, ङीप् च, छन्दसि रलोपः। मं ज्ञानं गुन्द्रयति मिथ्या वदति सा मगुन्द्री तस्याः। ज्ञाननाशयित्र्याः कुवासनाया निर्धनतायाः। दुहितरः। नप्तृनेष्टृ.....दुहितृ। उ० २।९५। इति दुह प्रपूरणे–तृन्, निपातनाद् गुणाभावः। दोग्धि प्रपूरयति कार्याणीति दुहिता। पुत्र्यः। पुत्रीवद् उत्पन्नाः। गृहेभ्यः। गेहे कः। पा० ३।१।१४४। इति ग्रह उपादाने–क। गेहात्। निर्। निःसार्य निःशेषेण वा। चातयामहे। चातयतिर्नाशने–निरु० ६।३०। नाशयामः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
হে রোগ-জীবাণুসমূহ ! (বঃ) তোমাদের (গোষ্ঠাৎ) গো-শালা থেকে (নির্ অজামসি) আমরা নিষ্কাশিত করি, (অক্ষাৎ) শকট থেকে (নির্) নিষ্কাশিত করি, (উপানসাৎ) রন্ধনশালার কাছ থেকে (নির্) নিষ্কাশিত করি। (মগুন্দ্যাঃ দুহিতরঃ) হে মগুন্দীর পুত্রীসমূহ! (বঃ) তোমাদের (গৃহেভ্যঃ) ঘর থেকে (নির্ চাতয়ামহে) আমরা পূর্ণরূপে বিনষ্ট করি/করে দিই।
टिप्पणी
[অজামসি = অজ গতিক্ষেপণয়োঃ (ভ্বাদিঃ)। অক্ষ =cart (আপ্টে), অর্থাৎ শকট। অনস্=Kitchen (আপ্টে), অর্থাৎ রান্নাঘর। মগুন্দী=মগ গত্যর্থঃ + দীঙ্ ক্ষয়ে (দিবাদিঃ), অর্থাৎ গতির ক্ষয়কারী, গতি অর্থাৎ শরীরের ক্রিয়াশক্তির বিনাশকারী, স্ত্রীজাতিক রোগ-জীবাণু= germs। দুহিতরঃ= নপ্ত্যঃ (মন্ত্র ১)। গৃহেভ্যঃ = সালাম্ (শালাম) মন্ত্র (১)। দুহিতরঃ এবং আগামী মন্ত্রে স্ত্রীলিঙ্গ প্রয়োগের দ্বারা স্ত্রী জাতক রোগ জীবাণু১ নিশ্চিত হয়।] [১. রোগ-জীবাণু দুই প্রকারের প্রতীত হয়, পুরুষ ও নারী।]
मन्त्र विषय
অলক্ষ্মীর্মনুষ্যৈঃ প্রয়ত্নেন নাশনীয়া
भाषार्थ
(বঃ) তোমাকে (গোষ্ঠাৎ) [নিজের] গোষ্ঠ অর্থাৎ বাচনালয় বা গো-শালা থেকে (নির্+অজামসি) আমরা নিষ্কাশিত করি, (অক্ষাৎ) ব্যবহার থেকে (নির্) নিষ্কাশিত করি, (উপানসাৎ) অন্নগৃহ বা ধান্যের গাড়ি থেকে (নির্) নিষ্কাশিত করি। (মগুন্দ্যাঃ) হে জ্ঞাননাশিনী [কুবাসনা বা নির্ধনতা] এর (দুহিতরঃ) পুত্রীগণ ! [পুত্রীসমান উৎপন্ন পীড়া] (বঃ) তোমাদের (গৃহেভ্যঃ) [নিজের] ঘর থেকে (নির্) নিষ্কাশিত করে (চাতয়ামহে) আমরা নাশ করি ॥২॥
भावार्थ
মনুষ্য ধন-সম্পদের উপার্জন ও ব্যয় করার ক্ষেত্রে এমন প্রবন্ধ করুক যে, পঠন-পাঠন, গাভী আদি পশু, বাণিজ্য ও অন্ন আদিতে যেন ক্ষতি না হয়, কিন্তু সব পদার্থের যথাবৎ সংগ্রহ দ্বারা সর্বদা সুখের বৃদ্ধি থাকে ॥২॥
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