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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - प्राणः, अपानः, आयुः छन्दः - त्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - अभय प्राप्ति सूक्त

    यथा॑ स॒त्यं चानृ॑तं च॒ न बि॑भी॒तो न रिष्य॑तः। ए॒वा मे॑ प्राण॒ मा बि॑भेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । स॒त्यम् । च॒ । अनृ॑तम् । च॒ । न । बि॒भी॒त: । न । रिष्य॑त: । ए॒व । मे॒ । प्रा॒ण॒ । मा । बि॒भे॒: ॥१५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सत्यम् । च । अनृतम् । च । न । बिभीत: । न । रिष्यत: । एव । मे । प्राण । मा । बिभे: ॥१५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (यथा) जैसे (च) निश्चय करके (सत्यम्) यथार्थ (च) और (अनृतम्) अयथार्थ (न)(रिष्यतः) दुःख देते और (न)(बिभीतः) डरते हैं, (एव) वैसे ही (मे) मेरे (प्राण) प्राण ! तू (मा बिभेः) मत डर ॥५॥

    भावार्थ - सत्य अर्थात् धर्म का विधान और असत्य अर्थात् अधर्म का निषेध, ये दो प्रधान अङ्ग न्याय के हैं। मनुष्य विधि और निषेध के यथावत् रूप को समझकर, कुमार्ग छोड़कर सुमार्ग में निर्भय चलें और अचल आनन्द भोगें ॥५॥ यजुर्वेद में वर्णन है–अ० १९ म० ७७। दृ॒ष्ट्वा रू॒पे व्याक॑रोत् सत्यानृ॒ते प्र॒जाप॑तिः। अश्रद्धा॒मनृ॒तेऽद॑धाच्छ्र॒द्धा स॒त्ये प्र॒जापतिः ॥१॥ (प्रजापतिः) प्रजाओं के रक्षक परमेश्वर ने (रूपे) दो रूप, (सत्यानृते) सत्य और झूँठ (दृष्ट्वा) देखकर (व्याकरोत्) समझाये। (प्रजापतिः) उस प्रजापति ने (अनृते) झूँठ में (अश्रद्धाम्) अश्रद्धा वा अप्रीति और (सत्ये) सत्य में (श्रद्धाम्) श्रद्धा वा प्रीति को (अदधात्) धारण कराया ॥

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