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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
    सूक्त - चातनः देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त

    अ॒राय॑मसृ॒क्पावा॑नं॒ यश्च॑ स्फा॒तिं जिही॑र्षति। ग॑र्भा॒दं कण्वं॑ नाशय॒ पृश्नि॑पर्णि॒ सह॑स्व च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒राय॑म् । अ॒सृ॒क्ऽपावा॑नम् । य: । च॒ । स्फा॒तिम् । जिही॑र्षति । ग॒र्भ॒ऽअ॒दम् । कण्व॑म् । ना॒श॒य‍॒ । पृश्नि॑ऽपर्णि । सह॑स्व । च॒ ॥२५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरायमसृक्पावानं यश्च स्फातिं जिहीर्षति। गर्भादं कण्वं नाशय पृश्निपर्णि सहस्व च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरायम् । असृक्ऽपावानम् । य: । च । स्फातिम् । जिहीर्षति । गर्भऽअदम् । कण्वम् । नाशय‍ । पृश्निऽपर्णि । सहस्व । च ॥२५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (पृश्निपर्णि) हे सूर्य वा पृथिवी की पालनेवाली [अथवा सूर्य वा पृथिवी जैसे पत्तेवाली ओषधिरूप परमेश्वरशक्ति] (अरायम्) निर्धनता को, (च) और (यः) जो [रोग] (स्फातिम्) बढ़वार को (जिहीर्षति) छीनना चाहे, [उस] (असृक्पावानम्) रक्त पीनेवाले और (गर्भादम्) गर्भ खानेवाले [गर्भाधानशक्ति नाश करनेवाले] (कण्वम्) पाप [रोग] को (सहस्व) जीत ले (च) और (नाशय) मिटा दे ॥३॥

    भावार्थ - जिन आलस्यादि दोषों और ब्रह्मचर्यादि खण्डनरूप कुकर्मों से हम धनहीन, तनक्षीण, मनमलीन होकर वंशच्छेद करें, ऐसे दोषों को हम सर्वथा त्यागें और उस (पृश्निपर्णी) सूर्यादि जगत् के रक्षक, पोषक, अखण्डव्रत परमात्मा का ध्यान करके विद्यावृद्धि, धनवृद्धि और कुलवृद्धि करके आनन्द भोगें ॥३॥

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