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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    सूक्त - चातनः देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त

    परा॑च एना॒न्प्र णु॑द॒ कण्वा॑ञ्जीवित॒योप॑नान्। तमां॑सि॒ यत्र॒ गछ॑न्ति॒ तत्क्र॒व्यादो॑ अजीगमम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑च: । ए॒ना॒न् । प्र । नु॒द॒ । कण्वा॑न् । जी॒वि॒त॒ऽयोप॑नान् । तमां॑सि । यत्र॑ । गच्छ॑न्ति । तत् । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥२५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पराच एनान्प्र णुद कण्वाञ्जीवितयोपनान्। तमांसि यत्र गछन्ति तत्क्रव्यादो अजीगमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पराच: । एनान् । प्र । नुद । कण्वान् । जीवितऽयोपनान् । तमांसि । यत्र । गच्छन्ति । तत् । क्रव्यऽअद: । अजीगमम् ॥२५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (एनान्) इन (जीवितयोपनान्) प्राणों के मोहनेवाले (कण्वान्) पापरोगों को (पराचः) ओंधे मुख (प्र णुद) ढकेल दे। (यत्र) जहाँ (तमांसि) अन्धकार (गच्छन्ति) व्याप्त रहते हैं, (तत्=तत्र) वहाँ (क्रव्यादः) माँस खानेवाले [रोगों] को (अजीगमम्) मैंने पहुँचा दिया है ॥५॥

    भावार्थ - जैसे राजा महापापी दुराचारी पुरुष को बन्ध करके अन्धेरे करागार में डाल देता है, इसी प्रकार पुरुषार्थी पुरुष व्यायाम करने और पथ्य पदार्थों के सेवन से आलस्य, ज्वर आदि शारीरिक रोगों को मिटाकर अविद्यादि मानसिक रोगों का नाश करें ॥५॥

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