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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    सूक्त - काण्वः देवता - मही अथवा चन्द्रमाः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृमिजम्भन सूक्त

    ये क्रिम॑यः॒ पर्व॑तेषु॒ वने॒ष्वोष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व॑१न्तः। ये अ॒स्माकं॑ त॒न्व॑माविवि॒शुः सर्वं॒ तद्ध॑न्मि॒ जनि॑म॒ क्रिमी॑णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये क्रिम॑य: । पर्व॑तेषु । वने॑षु । ओष॑धीषु । प॒शुषु॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । ये । अ॒स्माक॑म् । त॒न्व᳡म् । आ॒ऽवि॒वि॒शु: । सर्व॑म् । तत् । ह॒न्मि॒ । जनि॑म । क्रिमी॑णाम् ॥३१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुष्वप्स्व१न्तः। ये अस्माकं तन्वमाविविशुः सर्वं तद्धन्मि जनिम क्रिमीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये क्रिमय: । पर्वतेषु । वनेषु । ओषधीषु । पशुषु । अप्ऽसु । अन्त: । ये । अस्माकम् । तन्वम् । आऽविविशु: । सर्वम् । तत् । हन्मि । जनिम । क्रिमीणाम् ॥३१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (ये) जो (क्रिमयः) कीड़े (पर्वतेषु) पहाड़ों में, (वनेषु) वनों में, (ओषधीषु) अन्न आदि ओषधियों में, (पशुषु) गौ आदि पशुओं में और (अप्सु) जल में (अन्तः) भीतर हैं। और (ये) जो (अस्माकम्) हमारे (तन्वम्) शरीर में (आविविशुः) प्रविष्ट हो गये हैं, (क्रिमीणाम्) क्रिमियों के (तत्) उस (सर्वम्) सब (जनिम) जन्म को (हन्मि) मैं नाश करूँ ॥५॥

    भावार्थ - मनुष्यों को उचित है कि सब स्थानों, सब वस्तुओं और अपने शरीरों को शुद्ध रक्खें कि छोटे-बड़े कोई जन्तु क्लेश न देवें, ऐसे ही सब पुरुष आत्मशुद्धि करके अपने भीतरी बाहिरी, छोटे-बड़े दोषों को मिटाकर आनन्द से रहें ॥५॥ सायणभाष्य में (ये) के स्थान में [ते] और (तन्वम्) के स्थान में [तन्वः] है ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥

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