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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - काण्वः देवता - मही अथवा चन्द्रमाः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृमिजम्भन सूक्त
    111

    ये क्रिम॑यः॒ पर्व॑तेषु॒ वने॒ष्वोष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व॑१न्तः। ये अ॒स्माकं॑ त॒न्व॑माविवि॒शुः सर्वं॒ तद्ध॑न्मि॒ जनि॑म॒ क्रिमी॑णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये क्रिम॑य: । पर्व॑तेषु । वने॑षु । ओष॑धीषु । प॒शुषु॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । ये । अ॒स्माक॑म् । त॒न्व᳡म् । आ॒ऽवि॒वि॒शु: । सर्व॑म् । तत् । ह॒न्मि॒ । जनि॑म । क्रिमी॑णाम् ॥३१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुष्वप्स्व१न्तः। ये अस्माकं तन्वमाविविशुः सर्वं तद्धन्मि जनिम क्रिमीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये क्रिमय: । पर्वतेषु । वनेषु । ओषधीषु । पशुषु । अप्ऽसु । अन्त: । ये । अस्माकम् । तन्वम् । आऽविविशु: । सर्वम् । तत् । हन्मि । जनिम । क्रिमीणाम् ॥३१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।

    पदार्थ

    (ये) जो (क्रिमयः) कीड़े (पर्वतेषु) पहाड़ों में, (वनेषु) वनों में, (ओषधीषु) अन्न आदि ओषधियों में, (पशुषु) गौ आदि पशुओं में और (अप्सु) जल में (अन्तः) भीतर हैं। और (ये) जो (अस्माकम्) हमारे (तन्वम्) शरीर में (आविविशुः) प्रविष्ट हो गये हैं, (क्रिमीणाम्) क्रिमियों के (तत्) उस (सर्वम्) सब (जनिम) जन्म को (हन्मि) मैं नाश करूँ ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि सब स्थानों, सब वस्तुओं और अपने शरीरों को शुद्ध रक्खें कि छोटे-बड़े कोई जन्तु क्लेश न देवें, ऐसे ही सब पुरुष आत्मशुद्धि करके अपने भीतरी बाहिरी, छोटे-बड़े दोषों को मिटाकर आनन्द से रहें ॥५॥ सायणभाष्य में (ये) के स्थान में [ते] और (तन्वम्) के स्थान में [तन्वः] है ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ५–क्रिमयः। म० १। क्षुद्रजन्तवः। पर्वतेषु। भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे–अतच्। पर्वति पूरयति भूमिमिति। शैलेषु। वनेषु। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति वन सम्भक्तौ–घः। वन्यते सेव्यते वृक्षैः। बहुवृक्षयुक्तस्थानेषु। अरण्येषु। ओषधीषु। पशुषु। अप्सु। अन्तः। व्याख्यातानि–अ० १।३०।३। ओषधीषु। धान्यादिषु। पशुषु। गवादिषु। सर्वजीवेषु। अप्सु। जलेषु। अन्तः। मध्ये। तन्वम्। अ० १।१।१। शरीरम्। आ–विविशुः। विश प्रवेशे–लिट्। प्रविष्टाः। सर्वम्। प्रत्येकम्। तत्। पूर्वोक्तम्। हन्मि। नाशयामि। जनिम। अ० १।८।४। उत्पत्तिकारणम्। क्रिमीणाम्। कृमीणाम्। कीटानाम् ॥

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    विषय

    कृमि-जन्मोच्छेद

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (क्रिमयः) = कृमि (पर्वतेषु) = पर्वतों में हैं, (वनेषु) = बनों में हैं, (ओषधिषु) = औषधियों में हैं, (पशुषु) = पशुओं में हैं अथवा (अप्सु अन्त:) = जलों में हैं (तत्) = उन (सर्वम्) = सब (क्रिमीणाम्) = कृमियों के (जनिम) = जन्म को (हन्मि) = मैं नष्ट करता हूँ। उल्लिखित पर्वत आदि के सम्पर्क में आने पर (ये) = जो कृमि (अस्माकम्) = हमारे (तन्वम्) = शरीर में (आविविशुः) = प्रवेश कर गये हैं, उन सब कृमियों के फैलाव [जनिम-विकास] को भी मैं नष्ट करता है।

    भावार्थ

    पर्वत, वन, ओषधि, पशु व जलों में होनेवाले रोगकृमि हमारे शरीरों में भी प्रवेश कर जाते हैं, हम उन्हें विनष्ट करें।

    विशेष

    विशेष प्रस्तुत सूक्त में रोगकृमियों के लिए दो बातों का संकेत हैं [क] जितेन्द्रिय बनकर शरीर को पत्थर के समान दृढ़ बनाना [इन्द्रस्य मही दृषत्] तथा [ख] वचा ओषधि का प्रयोग [वचसा]। अगले सूक्त का भी यही विषय है। यहाँ आदित्य-किरणों से कृमिनाश का संकेत है।

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    भाषार्थ

    (ये क्रिमयः) जो कृमि (पर्वतेषु) पर्वतों में हैं, (वनेषु) वनों में हैं, (ओषधीषु) ओषधियों में हैं, (पशुषु) पशुओं में है, (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर हैं। (ये) जो (अस्माकम् तन्वः) हमारे शरीरों में (आ विविशुः ) प्रविष्ट हो गए हैं, (क्रिमीणाम् तत् सर्वं जनिम) कृमियों की उस सब उत्पत्ति का (हन्मि) मैं वैद्य हनन करता हूँ।

    टिप्पणी

    [आ विविशुः = ब्रणमुखेन, अन्नपानादिद्वारेण वा प्रविष्टा: (सायण)। आ= आगत्य, पर्वत आदि से आकर प्रविष्ट हुए हैं।]

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    विषय

    रोगकारी जन्तुओं के नाश करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (ये क्रिमयः) जो किमि, रोगजनक जन्तु (पर्वतेषु) पर्वतों में, (वनेषु) वनों, जंगलों में, (ओषधीषु) ओषधि आदि खाने योग्य पदार्थों में, (पशुषु) पशुओं में और (अप्सु अन्तः) पान करने योग्य जलों में रहते हों और (ये) जो (अस्माकं) हमारे (तन्वं) शरीर में व्रण मार्ग से या अन्न जल के साथ (आ विविशुः) घुस जाते हैं (सर्वं तत्) उन सब (क्रिमीणां) रोग जन्तुओं के (जनिम) जातियों को या उत्पत्ति के मूलकारण या उनकी उत्पत्ति को ही (हन्मि) मैं विनाश करूं ।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘ते अस्माकं’ इति क्काचित्कः पाठः सायणाभिमतश्च। ‘तत्व आविशु’ इति सायणाभिमतः पाठः। (प्र०) पर्वतेषु ये वनेषु ये ओषधीषु इति पैप्प० सं०। (तृ० च०) येऽस्माकं तन्नो (त्व) स्थामचक्रि [ रे ] ‘इन्द्रस्तान् हन्तु महता वधेन’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्व ऋषिः। मही चन्द्रो वा देवता । १ अनुष्टुप् । २, ४ उपरिष्टाद् विराड् बृहती । ३ आर्षी त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सृक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Afflictive Germs and Insects

    Meaning

    All those germs and insects which thrive on mountains, in forests, on herbs and trees, on and in the animals, in the waters, and those which infect our bodies, all these we destroy along with their places of breeding.

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    Translation

    The worms, that are found in the hilly regions, in the forests, inside the animals and in waters, and that have entered our bodies, I hereby destroy their entire generation.

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    Translation

    I eradicate the family and progeny of all those disease germs which live in forest, which live in mountains, which make their abode in herbaceous plants, which live in animals, which live in waters and which enter into our bodies.

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    Translation

    Worms that are found on mountains, in the forests, that live in plants, in the cattle, in the waters, those that have made their way within our bodies,—I destroy the whole generation of these worms.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–क्रिमयः। म० १। क्षुद्रजन्तवः। पर्वतेषु। भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे–अतच्। पर्वति पूरयति भूमिमिति। शैलेषु। वनेषु। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति वन सम्भक्तौ–घः। वन्यते सेव्यते वृक्षैः। बहुवृक्षयुक्तस्थानेषु। अरण्येषु। ओषधीषु। पशुषु। अप्सु। अन्तः। व्याख्यातानि–अ० १।३०।३। ओषधीषु। धान्यादिषु। पशुषु। गवादिषु। सर्वजीवेषु। अप्सु। जलेषु। अन्तः। मध्ये। तन्वम्। अ० १।१।१। शरीरम्। आ–विविशुः। विश प्रवेशे–लिट्। प्रविष्टाः। सर्वम्। प्रत्येकम्। तत्। पूर्वोक्तम्। हन्मि। नाशयामि। जनिम। अ० १।८।४। उत्पत्तिकारणम्। क्रिमीणाम्। कृमीणाम्। कीटानाम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (যে ক্রিময়ঃ) যে কৃমি (পর্বতেষু) পর্বতে রয়েছে, (বনেষু) বনে রয়েছে, (ওষধীষু) ঔষধি-সমূহে রয়েছে, (পশুষু) পশুদের মধ্যে রয়েছে, (অপ্সু অন্তঃ) জলের ভিতরে রয়েছে। (যে) যা (অস্মাকম্ তন্বঃ) আমাদের শরীরে (আ বিবিশুঃ) প্রবিষ্ট হয়ে গেছে/হয়েছে, (ক্রিমীণাম্ তৎ সর্বং জন্ম) কৃমির ঐ সমস্ত উৎপত্তির (হন্মি) আমি বৈদ্য হনন করি।

    टिप्पणी

    [আ বিবিশুঃ= ব্রণমুখেন, অন্নপানাদিদ্বারেণ বা প্রবিষ্টাঃ (সায়ণ)। আ=আগত্য, পর্বত আদি থেকে এসে প্রবিষ্ট হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    স্বল্পানপি দোষান্নাশয়েৎ

    भाषार्थ

    (যে) যে (ক্রিময়ঃ) কৃমি (পর্বতেষু) পাহাড়ে, (বনেষু) বনে, (ওষধীষু) অন্ন আদি ঔষধির মধ্যে, (পশুষু) গাভী আদি পশুদের মধ্যে এবং (অপ্সু) জলে (অন্তঃ) ভেতরে আছে। এবং (যে) যে/যা (অস্মাকম্) আমাদের (তন্বম্) শরীরের মধ্যে (আবিবিশুঃ) প্রবিষ্ট হয়ে গেছে, (ক্রিমীণাম্) কৃমির (তৎ) সেই (সর্বম্) সকল (জনিম) জন্মকে (হন্মি) আমি হনন করি ॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্যদের উচিত, সকল স্থান, সকল বস্তু এবং নিজের শরীর শুদ্ধ রাখা যাতে ছোটো-বড়ো কোনো জন্তু ক্লেশ/দুঃখ না দিতে পারে, এভাবেই সব পুরুষ আত্মশুদ্ধি করে নিজের আভ্যন্তরীণ ও বাহ্যিক, ছোটো-বড়ো দোষ দূর/নিবারণ করে আনন্দে থাকুক ॥৫॥ সায়ণভাষ্যে (যে) এর স্থানে [তে] এবং (তন্বম্) এর স্থানে [তন্বঃ] আছে ॥ ইতি পঞ্চমোঽনুবাকঃ ॥

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