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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - काण्वः देवता - मही अथवा चन्द्रमाः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृमिजम्भन सूक्त
    81

    अ॒ल्गण्डू॑न्हन्मि मह॒ता व॒धेन॑ दू॒ना अदू॑ना अर॒सा अ॑भूवन्। शि॒ष्टानशि॑ष्टा॒न्नि ति॑रामि वा॒चा यथा॒ क्रिमी॑णां॒ नकि॑रु॒च्छिषा॑तै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ल्गण्डू॑न् । ह॒न्मि॒ । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । दू॒ना: । अदू॑ना: । अ॒र॒सा: । अ॒भू॒व॒न् । शि॒ष्टान् । अशि॑ष्टान् । नि । ति॒रा॒मि॒ । वा॒चा । यथा॑ । क्रिमी॑णाम् । नकि॑: । उ॒त्ऽशिषा॑तै ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अल्गण्डून्हन्मि महता वधेन दूना अदूना अरसा अभूवन्। शिष्टानशिष्टान्नि तिरामि वाचा यथा क्रिमीणां नकिरुच्छिषातै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अल्गण्डून् । हन्मि । महता । वधेन । दूना: । अदूना: । अरसा: । अभूवन् । शिष्टान् । अशिष्टान् । नि । तिरामि । वाचा । यथा । क्रिमीणाम् । नकि: । उत्ऽशिषातै ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।

    पदार्थ

    (अल्गण्डून्) उपधानों [तकियों में] भरे हुए जन्तुओं को (महता) बड़ी (वधेन) चोट से (हन्मि) मैं मारता हूँ। (दूनाः) तपे हुए और (अदूनाः) बिना तपे हुए [पक्के और कच्चे कीड़े] (अरसाः) नीरस [निर्बल] (अभूवन्) हो गये हैं। (शिष्टान्) बचे हुए (अशिष्टान्) दुष्टों को (वाचा) वचन से (नि) नीचे डालकर (तिरामि) मार डालूँ, (यथा) जिससे (क्रिमीणाम्) कीड़ों में से (नकिः) कोई भी न (उच्छिषातै) बचा रहे ॥३॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ और २ के समान है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–अल्गण्डून्। म० २। उपधानेषु पूर्णान्। हन्मि। नष्टीकरोमि। महता। अ० १।१०।४। प्रभूतेन। वधेन। हनश्च वधः। पा० ३।३।७६। इति हन–अप्, वधादेशः। हननसाधनेन। प्रहारेण। दूनाः। ल्वादिभ्यः। पा० ८।२।४४। अत्र वार्त्तिकम्। दुग्वोर्दीर्घश्च। इति दु गतौ–क्त। अथवा। ओदितश्च। पा० ८।२।४५। इति ओदूङ् खेदे उपतापे–क्त। तस्य नः। खेदिताः। परितप्ताः। अदूनाः। अखेदिताः। अतप्ताः। अरसाः। शुष्काः। निर्बलाः। शिष्टान्। शिष असर्वोपयोगे–क्त। अवशिष्टान्। शेषान्। अशिष्टान्। शासु शासने–क्त। शास इदङ्हलोः। आ० ६।४।३४। इति इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति सस्य षः। शिष्टविरोधिनः। दुष्टान्। नि+तिरामि। निपूर्वस्तिरतिर्हिंसने। निहन्मि। वाचा। वचसा म० २। क्रिमीणाम्। कीटानां मध्ये। नकिः। न कश्चिदपि। उच्छिषातै। शिष्लृ विशेषणे लेटि आडागमः। छन्दसि आत्मनेपदम्। टेरेत्वे कृते। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।३।९६। इति ऐत्वम्। उच्छिष्यात् ॥

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    विषय

    कृमियों का समूलोच्छेद

    पदार्थ

    १. (अल्गण्डून) = मुख-अवयवों की क्रिया को रोकनेवाले अथवा [शोणितमांसदूषकान् सा०] रुधिर व मांस में विकार उत्पन्न करनेवाले कृमियों को (महता वधेन) = प्रबल बध [आक्रमण] के द्वारा (हन्मि) = नष्ट करता है। इन कृमियों के नाश के लिए अभियान ही करता हूँ। २. (दूना:) = ओषधियों के प्रभाव से सन्तप्त हुए-हुए [दु-उपतापे-दुनोति] (अदूना:) = गतिशून्य [दु-गतौ] ये सब (कृमि अरसा:) = जीवनशून्य (अभूवन्) = हो गये हैं। ३. (शिष्टान्) = बचे हुए (अशिष्टान्) = अभी तक जो शासित नहीं हो सके [शास] उन कृमियों को (वचा) = वचा ओषधि के प्रयोग से (नितिरामि) = हिंसित करता हूँ, यथा जिससे (क्रिमीणाम्) = इन कृमियों में से (नकिः उच्छिषातै:) = कोई बचता नहीं है। इनका समूलोच्छेद हो जाता है।

    भावार्थ

    वचा औषधि के प्रयोग से हम सब कृमियों का समूलोच्छेद करते हैं।

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    भाषार्थ

    (अल्गण्डून) निवारणीय गण्डोओं का (महता) महाबली (वधेन) वधकारी औषध द्वारा (हन्मि) मैं (वैद्य) हनन करता हूँ (दूनाः) परिताप देनेवाले, (अदूनाः) परिताप न देनेवाले, (अरसाः) रसरहित ( अभूवन् ) हो गए हैं, शुष्क हो गए हैं, शक्तिहीन हो गए हैं । (शिष्टान्) जो शेष बचे हैं शरीर में, (अशिष्टान्) और जो शेष नहीं रहे अर्थात् मार दिए गए हैं, उनको (वाचा) वेदोक्त विधि द्वारा (नि तिरामि) मैं [वैद्य] शरीर से बाहिर कर देता हूँ, (यथा) जिस प्रकार से कि (क्रिमीणाम् ) क्रिमियों में (नकि:) न कोई (उच्छिषातै) शेष रहे [शरीर में।]

    टिप्पणी

    [उच्छिषातै= "वैतोऽन्यत्र" (अष्टा० ३।४।९६) इति ऐत्वम् लेटि आडागमः (सायण)।]

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    विषय

    रोगकारी जन्तुओं के नाश करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (अलगण्डून्) अति अधिक खाज़ उत्पन्न करने वाले ‘अलगण्डू’ नामक कीटों को (महता वधेन) बड़े विनाशक ओषधि से (हन्मि) विनाश करूं। वे सब कीट ओषधि से (दूनाः) जलभुन कर और (अदूनाः) या बिना जले ही सूख कर (अरसाः) बिना प्राण के (अभूवन्) हो जाते हैं। उन जन्तुओं में से मैं (शिष्टान्) शास्त्र में जिनके विशेष लक्षण कहे हैं उनको और (अशिष्टान्) उनके समान हानिकारक अन्यों को भी (वाचा) अपनी वाणी के बल से या वेदवाणी के किये उपदेश से (नि तिरामि) इस प्रकार जड़ मूल से विनाश करूं (यथा) जिससे (क्रिमीणां) फैलने वाले, रोगकारी कीटों में से (नकिः) कोई भी न (उत् शिषातै) बच पावें।

    टिप्पणी

    (च०)‘नकिरुच्छिष्यातै’ इति ह्विटनिकामितः पाठः। (द्वि०) ‘दूनाद दूना’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्व ऋषिः। मही चन्द्रो वा देवता । १ अनुष्टुप् । २, ४ उपरिष्टाद् विराड् बृहती । ३ आर्षी त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सृक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Afflictive Germs and Insects

    Meaning

    I destroy the hiding pests with a strong insecticide so that whether they move or not, they become lifeless. Those that survive and those that don’t, I eliminate with the vacha herb so that ultimately none survives.

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    Translation

    I strike the insects, causing itching, with the great destructive weapon. All those insects, struck and burnt have now become lifeless. With the vaca herb, I destroy the lame one, fast moving and sluggish, so that none of the insects remain alive.

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    Translation

    With the means of powerful germicide I slay Algandun, the germ causing much itch in the skin and thus these germs being burnt or unburnt become powerless. I extirpate those germs which are defined and which are not defined through the means of knowledge of the Vedic speech in such a way that none of them remain alive.

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    Translation

    I kill worms, that cause irritation in the skin, with a potential medicine. The developed and the undeveloped worms have lost their vigor. I kill with medicine the foul worms that have escaped death, so that not a single worm remains alive.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–अल्गण्डून्। म० २। उपधानेषु पूर्णान्। हन्मि। नष्टीकरोमि। महता। अ० १।१०।४। प्रभूतेन। वधेन। हनश्च वधः। पा० ३।३।७६। इति हन–अप्, वधादेशः। हननसाधनेन। प्रहारेण। दूनाः। ल्वादिभ्यः। पा० ८।२।४४। अत्र वार्त्तिकम्। दुग्वोर्दीर्घश्च। इति दु गतौ–क्त। अथवा। ओदितश्च। पा० ८।२।४५। इति ओदूङ् खेदे उपतापे–क्त। तस्य नः। खेदिताः। परितप्ताः। अदूनाः। अखेदिताः। अतप्ताः। अरसाः। शुष्काः। निर्बलाः। शिष्टान्। शिष असर्वोपयोगे–क्त। अवशिष्टान्। शेषान्। अशिष्टान्। शासु शासने–क्त। शास इदङ्हलोः। आ० ६।४।३४। इति इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति सस्य षः। शिष्टविरोधिनः। दुष्टान्। नि+तिरामि। निपूर्वस्तिरतिर्हिंसने। निहन्मि। वाचा। वचसा म० २। क्रिमीणाम्। कीटानां मध्ये। नकिः। न कश्चिदपि। उच्छिषातै। शिष्लृ विशेषणे लेटि आडागमः। छन्दसि आत्मनेपदम्। टेरेत्वे कृते। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।३।९६। इति ऐत्वम्। उच्छिष्यात् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অল্গণ্ডুন) নিবারণীয় গণ্ড-সমূহের (মহতা) মহাবলী (বধেন) বধকারী/নিবারক ঔষধ দ্বারা (হন্মি) আমি [বৈদ্য] হনন করি (দূনাঃ) পরিতাপক/কষ্টদায়ক, (অদূনাঃ) অপরিতাপক, (অরসাঃ) রসরহিত (অভূবন্) হয়ে গেছে, শুষ্ক হয়ে গেছে, শক্তিহীন হয়ে গেছে। (শিষ্টান্) যা অবশিষ্ট রয়েছে শরীরে, (অশিষ্টান্) এবং যা অবশিষ্ট নেই অর্থাৎ বিনাশ করে দেওয়া হয়েছে, তা (বাচা) বেদোক্ত বিধি দ্বারা (নি তিরামি) আমি [বৈদ্য] শরীর থেকে বাহির করে দেই/নিষ্কাশিত করি, (যথা) যাতে (ক্রিমীণাম্) কৃমির মধ্যে (নকিঃ) না কেউ (উচ্ছিষাতৈ) অবশিষ্ট থাকে [শরীরে।]

    टिप्पणी

    [উচ্ছিষাতৈ = "বৈতোঽন্যত্র" (অষ্টা০ ৩।৪।৯৬) ইতি ঐত্বম্, লেটি আডাগমঃ (সায়ণ)।]

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    मन्त्र विषय

    স্বল্পানপি দোষান্নাশয়েৎ

    भाषार्थ

    (অল্গণ্ডূন্) উপধানের মধ্যে পূর্ণ জন্তুদের (মহতা) বড়ো/প্রভূত (বধেন) আঘাত/প্রহার দ্বারা (হন্মি) আমি হনন করি। (দূনাঃ) তপ্ত এবং (অদূনাঃ) অতপ্ত [প্রবীন ও নবীন কৃমি] (অরসাঃ) নীরস/শুষ্ক [নির্বল] (অভূবন্) হয়ে গেছে। (শিষ্টান্) অবশিষ্ট (অশিষ্টান্) দুষ্টদের (বাচা) বচন দ্বারা (নি) নীচে ফেলে (তিরামি) বধ করি, (যথা) যাতে (ক্রিমীণাম্) কৃমির মধ্যে (নকিঃ) কেউ না (উচ্ছিষাতৈ) বেঁচে থাকে/অবশিষ্ট থাকে॥৩॥

    भावार्थ

    মন্ত্র ১ ও ২ এর সমান ॥৩॥

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