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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - आशीर्वचनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पशुगण सूक्त

    प्र॑जा॒नन्तः॒ प्रति॑ गृह्णन्तु॒ पूर्वे॑ प्रा॒णमङ्गे॑भ्यः॒ पर्या॒चर॑न्तम्। दिवं॑ गछ॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः स्व॒र्गं या॑हि प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽजा॒नन्त॑: । प्रति॑ । गृ॒ह्ण॒न्तु॒ । पूर्वे॑ । प्रा॒णम् । अङ्गे॑भ्य: । परि॑ । आ॒ऽचर॑न्तम् । दिव॑म् । ग॒च्छ॒ । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रै: । स्व॒:ऽगम् । या॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: ॥३४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजानन्तः प्रति गृह्णन्तु पूर्वे प्राणमङ्गेभ्यः पर्याचरन्तम्। दिवं गछ प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वर्गं याहि पथिभिर्देवयानैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽजानन्त: । प्रति । गृह्णन्तु । पूर्वे । प्राणम् । अङ्गेभ्य: । परि । आऽचरन्तम् । दिवम् । गच्छ । प्रति । तिष्ठ । शरीरै: । स्व:ऽगम् । याहि । पथिऽभि: । देवऽयानै: ॥३४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (प्रजानन्तः) बड़े ज्ञानवाले (पूर्वे=पूर्वे वर्त्तमानाः+भवन्तः) प्रथम स्थान में वर्त्तमान महात्मा पुरुष आप (अङ्गेभ्यः) सबके अङ्गों के हित के लिये (परि) सब ओर (आचरन्तम्) चलनेवाले (प्राणम्) अपने प्राण [बल] को (प्रति) प्रत्यक्ष (गृह्णन्तु) ग्रहण करें। [हे मनुष्य !] (दिवम्) ज्ञानप्रकाश वा व्यवहार को (गच्छ) प्राप्त कर, (शरीरैः) सब अङ्गों के साथ (प्रति तिष्ठ) तू प्रतिष्ठित रह, (देवयानैः) देवताओं के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (स्वर्गम्) स्वर्ग [महा आनन्द] में (याहि) तू पहुँच ॥५॥

    भावार्थ - ज्ञानी महात्मा पुरुष जो श्वास लें, वह संसार के उपकार के लिये ही लें अर्थात् प्रतिक्षण परोपकार में लगकर अपना सामर्थ्य और जीवन बढ़ावें और प्रत्येक मनुष्य को योग्य है कि अपने आत्मा में ज्ञान का प्रकाश करके सब व्यवहारों में चतुर हो और आँख, कान, हाथ, पग आदि अङ्गों से शुभ कर्म करके प्रतिष्ठा बढ़ावे और जिन वेदमार्गों पर देवता चलकर स्वर्ग भोगते हैं, उन्हीं वेदरूपी राजपथों पर चलकर जीवन्मुक्त होकर आनन्द भोगें ॥५॥

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