अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
प्र॑जा॒नन्तः॒ प्रति॑ गृह्णन्तु॒ पूर्वे॑ प्रा॒णमङ्गे॑भ्यः॒ पर्या॒चर॑न्तम्। दिवं॑ गछ॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः स्व॒र्गं या॑हि प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजा॒नन्त॑: । प्रति॑ । गृ॒ह्ण॒न्तु॒ । पूर्वे॑ । प्रा॒णम् । अङ्गे॑भ्य: । परि॑ । आ॒ऽचर॑न्तम् । दिव॑म् । ग॒च्छ॒ । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रै: । स्व॒:ऽगम् । या॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजानन्तः प्रति गृह्णन्तु पूर्वे प्राणमङ्गेभ्यः पर्याचरन्तम्। दिवं गछ प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वर्गं याहि पथिभिर्देवयानैः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजानन्त: । प्रति । गृह्णन्तु । पूर्वे । प्राणम् । अङ्गेभ्य: । परि । आऽचरन्तम् । दिवम् । गच्छ । प्रति । तिष्ठ । शरीरै: । स्व:ऽगम् । याहि । पथिऽभि: । देवऽयानै: ॥३४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बन्ध से मुक्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(प्रजानन्तः) बड़े ज्ञानवाले (पूर्वे=पूर्वे वर्त्तमानाः+भवन्तः) प्रथम स्थान में वर्त्तमान महात्मा पुरुष आप (अङ्गेभ्यः) सबके अङ्गों के हित के लिये (परि) सब ओर (आचरन्तम्) चलनेवाले (प्राणम्) अपने प्राण [बल] को (प्रति) प्रत्यक्ष (गृह्णन्तु) ग्रहण करें। [हे मनुष्य !] (दिवम्) ज्ञानप्रकाश वा व्यवहार को (गच्छ) प्राप्त कर, (शरीरैः) सब अङ्गों के साथ (प्रति तिष्ठ) तू प्रतिष्ठित रह, (देवयानैः) देवताओं के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (स्वर्गम्) स्वर्ग [महा आनन्द] में (याहि) तू पहुँच ॥५॥
भावार्थ
ज्ञानी महात्मा पुरुष जो श्वास लें, वह संसार के उपकार के लिये ही लें अर्थात् प्रतिक्षण परोपकार में लगकर अपना सामर्थ्य और जीवन बढ़ावें और प्रत्येक मनुष्य को योग्य है कि अपने आत्मा में ज्ञान का प्रकाश करके सब व्यवहारों में चतुर हो और आँख, कान, हाथ, पग आदि अङ्गों से शुभ कर्म करके प्रतिष्ठा बढ़ावे और जिन वेदमार्गों पर देवता चलकर स्वर्ग भोगते हैं, उन्हीं वेदरूपी राजपथों पर चलकर जीवन्मुक्त होकर आनन्द भोगें ॥५॥
टिप्पणी
टिप्पणी–स्वर्ग का लक्षण टिप्पणी, अ० १।३०।२ में अथर्ववेद का० ६। सू० १२० म० ३ के प्रमाण से दिया है, वहाँ देख लीजिये ॥ ५–प्रजानन्तः। प्र+ज्ञा–शतृ। प्रकर्षेण जानन्तः। महाविद्वांसः। प्रति। प्रत्यक्षम्। गृह्णन्तु। स्वीकुर्वन्तु। पूर्वे। प्रतिष्ठास्थाने वर्त्तमानाः। प्रधानाः। प्राणम्। अ० २।१५।१। जीवनसाधनं प्राणापानरूपं बलम्। अङ्गेभ्यः। अ० १।१२।४। अङ्गानां हिताय। परि। सर्वतः। आचरन्तम्। चर–शतृ। आगच्छन्तम्। दिवम्। अ० १।३०।३। प्रकाशम्। शरीरैः। अ० २।१२।८। शरीराङ्गैः सह। स्वर्गम्। स्वः–इति व्याख्यातम् अ० २।५।२। स्वः सुखं गीयते यत्र, स्वः+गै–क। यद्वा, सुष्ठु अर्ज्यते, सु+अर्ज अर्जने–घञ्। शङ्क्वादित्वात् कुत्वम्। देवतानां विदुषां निवासस्थानम्। स्वर्लक्षणं द्रष्टव्यम्–टिप्पण्याम्। अ० १।३०।२। पथिभिः। पतस्थ च। उ० ४।१२। इति पत्लृ गतौ–इति, थश्चान्तादेशः। मार्गैः। देवयानैः। देव+या गतौ–ल्युट्। देवानां यानं गमनं यैः। देवगमनयोग्यैः ॥
विषय
प्राणसाधना
पदार्थ
१. (प्रजानन्तः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, (पूर्वे) = अपना पालन और पूरण करनेवाले लोग (पर्याचरन्तम्) = शरीर में सर्वत्र गति-करते हुए (प्राणम्) = प्राण को (अङ्गेभ्यः प्रतिगृह्णन्तु) = सब अङ्गों से निरुद्ध करें-इसे सब अङ्गों में विचरण करने से रोककर अपने में ही स्थापित करें। २. इसप्रकार प्राणनिरोध के द्वारा ही हे जीव! तू (दिवं गच्छ) = प्रकाश को प्राप्त हो। प्राण-निरोध से वीर्यरक्षा होकर बुद्धि तीन बनती है। (शरीरैः प्रतितिष्ठा:) = इस प्राणनिरोध के द्वारा तू शरीरों से प्रतिष्ठित हो। तेरे 'स्थूल, सूक्ष्म और कारण'-सब शरीर ठीक हों। प्राण-निरोध के द्वारा (देवयानैः पथिभिः) = देवयान मार्गों से (स्वर्ग याहि) = स्वर्ग को प्राप्त कर। प्राण-निरोध से सब वासनाओं का विनाश होता है और उत्तम प्रवृत्ति होकर मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है-सदा देवयानमार्ग से चलता है-देवतुल्य प्रवृत्तिवाला होता है। ३. हमारे तीन कर्तव्य हैं-[क]ज्ञान प्राप्त करें, [ख] अपना पालन व पूरण करें, [ग] प्राणसाधना द्वारा प्राण को वश में करें। सदा ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने से हम प्रकाश को प्राप्त करेंगे [दिवं गच्छ]-हमारा दृष्टिकोण सुलझा हुआ होगा और हम सन्तान, धन, यश में फंसेंगे नहीं। यदि हम अपने पालन व पुरण का ध्यान करेंगे, तो 'प्रतितिष्ठा शरीरैः' हमारे शरीर बड़े ठीक रहेंगे। प्राण-साधना से चित्तवृत्ति का निरोध होने से हम देवायान-मार्ग से चलेंगे और स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्क बनेंगे। ऐसा बनने में ही स्वर्ग का आनन्द है। मस्तिष्क स्वस्थ न हो तो हम पागलखाने में होते हैं, शरीर स्वस्थ न हो तो चिकित्सालय में। दोनों के स्वस्थ होने पर ही हम घर पर स्वर्ग-सुख का आनन्द अनुभव करते हैं।
भावार्थ
प्राणनिरोध से शरीर स्वस्थ होता है, ज्ञान प्रकाश प्राप्त होता है और मनुष्य देवतुल्य प्रवृत्तिवाला बनता है।
विशेष
इस सक्त में जीवन को अत्यन्त उत्कृष्ट बनाने का उल्लेख है। यह अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला 'अङ्गिरा' बनता है और 'विश्वकर्मा' प्रभु का उपासन करता है -
भाषार्थ
(पूर्व) प्राणायाम के अभ्यास में पूर्ण हुए, (प्रजानन्तः) प्राणायाम की विधि को जानते हुए, (पर्याचरन्तम् प्राणम्) शरीर में सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग में विचरते हुए प्राण का (प्रति गृह्णन्तु) प्रत्याहार द्वारा निग्रह करें। हे प्राण का निग्रह करनेवाले! (दिवम् गच्छ) दिव्य ज्योति को तू प्राप्त हो, (शरीरै:) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों द्वारा (प्रति तिष्ठ) दूढ़ स्थिति को तू प्राप्त हो जा, तदनन्तर (देवयानै: पथिभिः) देवों के जानेवाले मार्गों द्वारा (स्वर्गम्) स्वर्ग को (याहि) तू जा।
टिप्पणी
[पूर्वे= पुर्व पूरणे (भ्वादिः), अथवा पूरी आप्यायने (दिवादिः)१।] [१. मन्त्र ४, ५ में अर्थ समान है आप्यायनम् = वृद्धिः।]
विषय
मोक्षमार्ग का उपदेश ।
भावार्थ
जिस प्रकार (पूर्वे) पूर्वकल्प के ऋषिजन अथवा पूर्व पुरुष (प्रजानन्तः) ब्रह्म और आत्मा के तत्व को भली प्रकार जानते हुए समस्त अङ्गों में (परि आचरन्तं) सर्वत्र गति करते हुए (प्राणं) प्राण को वश करते हैं उसी प्रकार मुमुक्षु जन भी योग-साधनों से उस प्राण को (प्रति गृह्णन्तु) अपने वश करें। हे मुमुक्षु पुरुष ! तू भी (शरीरैः) अपने इन शरीरों द्वारा (प्रति तिष्ठाः) आत्मा को प्रतिष्ठित साधनासम्पन्न, सामर्थ्यवान् कर और फिर (देवयानैः पथिभिः) विद्वानों द्वारा गमन करने योग्य, मुमुक्षु मार्ग, देवयान नामक ज्ञानमार्गों से (स्वर्गं) उस पुण्यफल, सुखमय मोक्ष अवस्था को (याहि) प्राप्त कर और (दिवं) उस प्रकाशस्वरूप ब्रह्मपद को भी (गच्छ) प्राप्त कर । यह सूक्त सायण ने बलि करने योग्य वध्य पशु पर लगाते हुए कौशिक सूत्रप्रदर्शित विनियोग लेकर महा-अनर्थ किया है। यदि कौशिक सूत्रप्रदर्शित दिशा से ही सर्वलोकाधिपत्यकाम ज्ञानी परक यह सूक्त लगाया जाता तो उत्तम था।
टिप्पणी
(प्र०) ‘प्रतिगुहह्णन्तु देवाः’ (तृ०) ‘ताभ्यां गच्छ प्रति’ (च०) ‘पथिभिः शिवेभिः’ इति पैप्प० सं० (प्र०) ‘प्रतिगृह्णन्ति’ तृतीय चतुर्थयोः क्रमविपर्ययः। (तृ०) ‘ओषधीषु प्रति’, तै० स०। (च०) इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। पशुपतिर्देवता। पशुभागकरणम्। १-४ त्रिष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Way to Freedom, Moksha
Meaning
Eminent men of the first order of knowledge and vision should gratefully receive and recognise the flow of prana, life energy vibrating in the personality for the sustenance of every part and faculty dedicated to divine service. O man, be steadfast rooted in divinity, rise to the paradise of being by paths of divinities and ultimately rise to the state of divine light and eternal bliss.
Translation
May the realized ones, first of all, take the vital breath under their control from the limbs in which it has been circulating. Go to heaven, Stay firm with all the parts of your body. Attain the world of light and emancipation, following the path of the enlightened ones, (your predecessors). `
Translation
As the Purva, the persons full of knowledge knowing the secret of world, soul and God control their vital breath proceeding from the parts of the body. So the Persons desirous of emancipation control their vital breath. O’ Ye men; you desiring salvation, attain intuitive enlightenment and establish you therein with your, limbs and organs and after departing from world achieve the state of blessedness through the path traversed by highly enlightened men.
Translation
Just as ancient Rishis, knowing full well the essence of God and soul, used to control the vital breath proceeding from all parts of the body, so should the aspirants after salvation do!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी–स्वर्ग का लक्षण टिप्पणी, अ० १।३०।२ में अथर्ववेद का० ६। सू० १२० म० ३ के प्रमाण से दिया है, वहाँ देख लीजिये ॥ ५–प्रजानन्तः। प्र+ज्ञा–शतृ। प्रकर्षेण जानन्तः। महाविद्वांसः। प्रति। प्रत्यक्षम्। गृह्णन्तु। स्वीकुर्वन्तु। पूर्वे। प्रतिष्ठास्थाने वर्त्तमानाः। प्रधानाः। प्राणम्। अ० २।१५।१। जीवनसाधनं प्राणापानरूपं बलम्। अङ्गेभ्यः। अ० १।१२।४। अङ्गानां हिताय। परि। सर्वतः। आचरन्तम्। चर–शतृ। आगच्छन्तम्। दिवम्। अ० १।३०।३। प्रकाशम्। शरीरैः। अ० २।१२।८। शरीराङ्गैः सह। स्वर्गम्। स्वः–इति व्याख्यातम् अ० २।५।२। स्वः सुखं गीयते यत्र, स्वः+गै–क। यद्वा, सुष्ठु अर्ज्यते, सु+अर्ज अर्जने–घञ्। शङ्क्वादित्वात् कुत्वम्। देवतानां विदुषां निवासस्थानम्। स्वर्लक्षणं द्रष्टव्यम्–टिप्पण्याम्। अ० १।३०।२। पथिभिः। पतस्थ च। उ० ४।१२। इति पत्लृ गतौ–इति, थश्चान्तादेशः। मार्गैः। देवयानैः। देव+या गतौ–ल्युट्। देवानां यानं गमनं यैः। देवगमनयोग्यैः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(পূর্ব) প্রাণায়ামের অভ্যাসে পূর্ণ, (প্রজানন্তঃ) প্রাণায়ামের বিধি জ্ঞাত, (পর্যাচরন্তম্ প্রাণ) শরীরের মধ্যে সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গে বিচরিত প্রাণের (প্রতি গৃহ্ণন্তু) প্রত্যাহার দ্বারা নিগ্রহ করুক। হে প্রাণের নিগ্রহকারী ! (দিবম্ গচ্ছ) দিব্য জ্যোতি তুমি প্রাপ্ত হও, (শরীরৈঃ) স্থূল, সূক্ষ্ম এবং কারণ শরীরের দ্বারা (প্রতি তিষ্ঠ) দৃঢ় স্থিতি তুমি প্রাপ্ত হও, তদনন্তর (দেবযানৈঃ পথিভিঃ) দেবতাদের গমনের মার্গের দ্বারা (স্বর্গম্) স্বর্গ (যাহি) তুমি পৌঁছাও।
टिप्पणी
[পূর্বে=পূর্ব পূরণে (ভ্বাদিঃ), অথবা পূরী আপ্যায়নে (দিবাদিঃ)১।] [মন্ত্র ৪,৫ এর অর্থ সমান। আপ্যায়নম্=বৃদ্ধিঃ।]
मन्त्र विषय
বন্ধাৎ মোক্ষায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(প্রজানন্তঃ) মহাবিদ্বান/জ্ঞানবান (পূর্বে=পূর্বে বর্ত্তমানাঃ+ভবন্তঃ) প্রথম স্থানে বর্ত্তমান মহাত্মা পুরুষ আপনি (অঙ্গেভ্যঃ) সকলের অঙ্গের হিতের জন্য (পরি) সব দিকে (আচরন্তম্) চলনশীল (প্রাণম্) নিজের প্রাণ [বলকে] (প্রতি) প্রত্যক্ষ (গৃহ্ণন্তু) গ্রহণ করুন। [হে মনুষ্য !] (দিবম্) জ্ঞানপ্রকাশ বা ব্যবহার (গচ্ছ) প্রাপ্ত করো, (শরীরৈঃ) সকল অঙ্গের সাথে (প্রতি তিষ্ঠ) তুমি প্রতিষ্ঠিত থাকো, (দেবয়ানৈঃ) দেবতাদের চলার যোগ্য (পথিভিঃ) মার্গ থেকে (স্বর্গম্) স্বর্গে [মহা আনন্দে] (যাহি) তুমি পৌঁছাও ॥৫॥
भावार्थ
জ্ঞানী মহাত্মা পুরুষ যে শ্বাস গ্ৰহণ করবে, তা সংসারের উপকারের জন্য গ্ৰহণ করুক অর্থাৎ প্রতিক্ষণ পরোপকারে নিয়োজিত হয়ে নিজের সামর্থ্য ও জীবন বৃদ্ধি করুক এবং প্রত্যেক মনুষ্যের উচিত, নিজের আত্মায় জ্ঞানের প্রকাশ করে সব ব্যবহারে চতুর হওয়া এবং চোখ, কান, হাত, পা আদি অঙ্গ দ্বারা শুভ কর্ম করে প্রতিষ্ঠা বৃদ্ধি করা এবং যে বেদমার্গে দেবতা চলে স্বর্গ ভোগ করে, সেই বেদরূপী রাজপথে চলে জীবন্মুক্ত হয়ে আনন্দ ভোগ করা ॥৫॥ স্বর্গ-এর লক্ষণ টিপ্পণী, অ০ ১।৩০।২ এ অথর্ববেদ কা০ ৬। সূ০ ১২০ ম০ ৩ এর প্রমাণ থেকে দেওয়া হয়েছে, সেখানে দৃষ্টিপাত করুন ॥
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