अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वायुः, प्रजापतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पशुगण सूक्त
68
ये ग्रा॒म्याः प॒शवो॑ वि॒श्वरू॑पा॒ विरू॑पाः॒ सन्तो॑ बहु॒धैक॑रूपाः। वा॒युष्टानग्रे॒ प्र मु॑मोक्तु दे॒वः प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ संररा॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठये । ग्रा॒म्या: । प॒शव॑: । वि॒श्वऽरू॑पा: । विऽरू॑पा: । सन्त॑: । ब॒हु॒ऽधा । एक॑ऽरूपा: । वा॒यु: । तान् । अग्रे॑ । प्र । मु॒मो॒क्तु॒ । दे॒व: । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒ऽजया॑ । स॒म्ऽर॒रा॒ण: ॥३४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपा विरूपाः सन्तो बहुधैकरूपाः। वायुष्टानग्रे प्र मुमोक्तु देवः प्रजापतिः प्रजया संरराणः ॥
स्वर रहित पद पाठये । ग्राम्या: । पशव: । विश्वऽरूपा: । विऽरूपा: । सन्त: । बहुऽधा । एकऽरूपा: । वायु: । तान् । अग्रे । प्र । मुमोक्तु । देव: । प्रजाऽपति: । प्रऽजया । सम्ऽरराण: ॥३४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बन्ध से मुक्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (ग्राम्याः) ग्राम में बसनेवाले, (विश्वरूपाः) सब वर्णवाले (पशवः) जीव (बहुधा) प्रायः (विरूपाः) पृथक्-पृथक् रूपवाले (सन्तः) होकर (एकरूपाः) एक स्वभाववाले हैं, (तान्) उन (अग्रे=अग्रे वर्त्तमानान् पशून्) अग्रवर्त्ती जीवों को (वायुः) सर्वव्यापी वा बलदायक (देवः) प्रकाशस्वरूप, (प्रजापतिः) प्रजाओं का रक्षक परमेश्वर (प्रजया) प्रजा [अपने जनों] से (संरराणः=संरममाणः) आनन्द करता हुआ (प्र) भले प्रकार (मुमोक्तु) मुक्त करे ॥४॥
भावार्थ
जो (ग्राम्याः) मिलकर भोजन करनेवाले मनुष्य भिन्न देश, भिन्न अन्न, जल, वायु होने से भिन्नवर्ण होकर भी एक ईश्वर की आज्ञापालन में (एकरूप) तत्पर रहते हैं, परमेश्वर प्रसन्न होकर उन पुरुषार्थी महात्माओं को दुःख से छुड़ाकर सदा आनन्द देता है ॥४॥ २–शुद्धवायु सब प्राणियों को शारीरिक और आत्मिक सुख देता है ॥४॥
टिप्पणी
४–ये। पशवः। ग्राम्याः। ग्रसेरा च। उ० १।१४३। इति ग्रस भक्षे–मन्, धातोराकारान्तादेशश्च। ग्रसन्ति यत्र मिलित्वा। ग्रामाद् यखञौ। पा० ४।२।९४। ग्रामे शालासमुदाये भवा उत्पन्नाः। ग्रामीणाः। पशवः। प्राणिनः। विश्वरूपाः। खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु शब्दे–प, दीर्घश्च। रूयते कीर्त्त्यते तद् रूपम्। शुक्लादिवर्णम्। आकृतिः। स्वभावः। सौन्दर्यम्। नानावर्णाः। विरूपाः। विरुद्धाकाराः। सन्तः। वर्त्तमाना अपि। बहुधा। विभाषा बहोर्धाऽविप्रकृष्टकाले। पा० ५।४।२०। इति बहु+धा। बहुप्रकारम्। प्रायेण। एकरूपाः। परमेश्वराज्ञापालन एकस्वभावाः। वायुः। अ० २।२०।१। सर्वव्यापी। परमेश्वरः पवनः। प्रजापतिः। यज्ञः–निघ० ३।१८। प्रजानां पाता वा पालयिता वा [मध्यस्थानो देवः] निरु० १०।४२। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
विषय
स्वार्थ से ऊपर, मिलकर
पदार्थ
१. (वायु:) = गति के द्वारा सब अशुभों का हिंसन करनेवाला [वा गतिगन्धनयोः] (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (तान्) = उन्हें (अग्रे प्रमुमोक्तु) = सर्वप्रथम मुक्ता करता है, (ये) = जो (ग्राम्या:) = केवल स्वार्थमय जीवन न बिताकर सम्पूर्ण ग्राम के हित के लिए प्रवृत्त होते हैं [ग्रामाय हिताः] (पशव:) = [पश्यन्ति] देखकर चलते हैं तथा (विश्वरूपा:) = उस सर्वत्र प्रविष्ट प्रभु का निरूपण करनेवाले हैं, जो (बहुधा विरूपा: सन्त:) = बहुत प्रकार से, भिन्न-भिन्न रूपोंवाले होते हुए भी एकरूपाः उद्देश्य की दृष्टि से एक रूप होते हैं-समान उद्देश्य से विविध कार्यों में प्रवृत्त होते हैं-प्रभु इन्हें मुक्त करते हैं। २. ये प्रभु ही वस्तुतः (प्रजापतिः) = सब प्रजाओं के रक्षक है, (प्रजया संरराण:) = सब प्रजाओं के साथ रमण करनेवाले हैं। -
भावार्थ
हम स्वार्थ से ऊपर उठकर मिलकर चलें-यही मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग है।
भाषार्थ
(ये) जो (ग्राम्या:) ग्राभ्य स्वभावोंवाले (पशव:) पशुरूप हैं, (विश्वरूपाः) नाना रूपाकृतियोंवाले होते हुए, (विरुपा: सन्तः) अर्यात् भिन्न-भिन्न रूपाकृतियोंवाले होते हुए भी, (बहुधा) प्रायः (एकरूपाः) एकरूप हैं, ग्राम्यस्वभावोंवाले हैं, (तान्) उन्हें (अग्रे) प्रथम (वायु:) प्राणायाम वायु (प्रमुमोक्तु) प्रमुक्त करे, तत्पचात (प्रजया संरराणः) प्रजा के साथ सम्यक्-रममाण हुआ (प्रजापतिः) प्रजाओं का पति ब्रह्म प्रमुक्त करे।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि जो मनुष्य अभी ग्राम्यवृत्तियोंवाले हैं, जिन्हें कि अभी जीवात्म-अन्वीक्षण की भावनाएं जागरित नहीं हुई, वे पहिले प्राणायाम का अभ्यास करें और प्राणायाम के अभ्यास द्वारा मोक्ष के लिए तैयार हुओं को, वायुपति अर्थात् प्राणायाम वायु का पति परमेश्वर तत्पश्चात् उन्हें मोक्ष प्रदान करे।]
विषय
मोक्षमार्ग का उपदेश ।
भावार्थ
(ये) जो (ग्राम्याः) समाजधर्म का पालन करते हुए भी (पशवः) आत्मिक-मार्ग के दर्शन करने वाले हैं, (विश्वरूपा:) विश्व में जो कि दर्शनीय-व्यक्ति हैं, (विरूपाः) भिन २ कमों से नाना रूपों वाले होते हुए भी जो (बहुधा) प्रायः कर (एकरूपाः) निष्काम कर्म से एकरूप हैं (तान्) उन्हें (प्रजया संरराणः) प्रजा के साथ रमण करता हुआ (प्रजापतिः) और उस प्रजा की रक्षा करता हुआ (वायुः) सूत्रात्मा रूप व्यापक परमात्मा (अग्रे) शीघ्र (प्र मुमोक्तु) मुक्त कर देता है। अर्थात् ऐसे महात्माओं को मुक्ति के लिये नाना जन्म नहीं देखने पड़ते ।
टिप्पणी
(प्र०) ‘ये अरण्याः पशवो’, (तृ०) ‘वायुस्तान्’ इति तै० सं०। ये अरण्याः पशवो विश्वरूपा उत ये कुरूपाः’। (तृ०) मुमुक्तेति पूर्वमन्त्रवत् इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। पशुपतिर्देवता। पशुभागकरणम्। १-४ त्रिष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Way to Freedom, Moksha
Meaning
Those who are deep in the business of life and yet retain their vision of divinity, all round versatile in varied roles and situations of life many ways and yet same in the essence and similar in character in divine service, these may Vayu, lord self-potent and self- refulgent, Prajapati, sustainer of life happy with the children of his creation, liberate at the earliest.
Subject
Vayu-Prajapatih
Translation
The tame cattle of all forms, though varied in appearance and colour, are, verily, one, and are of one common nature. May our Vitality-Personified Lord (Vayu), Lord of Progeny (Prajāpati), happy and pleased with His creation, first of all (Vayuh tān agre), bless them with complete freedom.
Translation
May All-protecting All-pervading All-illuminating God rejoicing with his creatures release from fufferings, in their first stage, to these animals of various shapes who are domestic, though varied in color yet alike in nature.
Translation
Those, who observing the social law, keep their eye on the spiritual path, and are the cynosure of the world, being different in nature, are still alike in performing disinterested service, are first emancipated by the Refulgent God, the Guardian of His subjects, Who rejoices in His Creatures.[1]
Footnote
[1] Souls, who render disinterested service are soon granted-salvation. They have not to take birth again and again for long.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–ये। पशवः। ग्राम्याः। ग्रसेरा च। उ० १।१४३। इति ग्रस भक्षे–मन्, धातोराकारान्तादेशश्च। ग्रसन्ति यत्र मिलित्वा। ग्रामाद् यखञौ। पा० ४।२।९४। ग्रामे शालासमुदाये भवा उत्पन्नाः। ग्रामीणाः। पशवः। प्राणिनः। विश्वरूपाः। खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु शब्दे–प, दीर्घश्च। रूयते कीर्त्त्यते तद् रूपम्। शुक्लादिवर्णम्। आकृतिः। स्वभावः। सौन्दर्यम्। नानावर्णाः। विरूपाः। विरुद्धाकाराः। सन्तः। वर्त्तमाना अपि। बहुधा। विभाषा बहोर्धाऽविप्रकृष्टकाले। पा० ५।४।२०। इति बहु+धा। बहुप्रकारम्। प्रायेण। एकरूपाः। परमेश्वराज्ञापालन एकस्वभावाः। वायुः। अ० २।२०।१। सर्वव्यापी। परमेश्वरः पवनः। प्रजापतिः। यज्ञः–निघ० ३।१८। प्रजानां पाता वा पालयिता वा [मध्यस्थानो देवः] निरु० १०।४२। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(যে) যে (গ্রাম্যাঃ) গ্রাম্যস্বভাবযুক্ত (পশবঃ) পশুরূপ, (বিশ্বরূপাঃ) নানা রূপাকৃতির হয়ে, (বিরূপাঃ সন্তঃ) অর্থাৎ ভিন্ন-ভিন্ন রূপাকৃতির হয়েও, (বহুধা) প্রায়ঃ (একরূপাঃ) এক রূপ হয়, গ্রাম্যস্বভাবযুক্ত হয় (তান্) তাঁকে (অগ্রে) প্রথম (বায়ুঃ) প্রাণায়াম বায়ু (প্রমুমোক্তু) প্রমুক্ত করে, তৎপশ্চাৎ (প্রজয়া সংররাণঃ) প্রজার সাথে সম্যক্-রমমাণ (প্রজাপতিঃ) প্রজাদের পতি ব্রহ্ম প্রমুক্ত করে।
टिप्पणी
[অভিপ্রায় এটাই, যে মনুষ্য এখন গ্রাম্যবৃত্তির, যার এখনও জীবাত্ম-অন্বীক্ষণ এর ভাবনা জাগরিত হয়নি, সে প্রথমে প্রাণায়াম এর অভ্যাস করুক এবং প্রাণায়ামের অভ্যাস দ্বারা মোক্ষের জন্য প্রস্তুতদের, বায়ুপতি অর্থাৎ প্রাণায়াম বায়ু-এর পতি পরমেশ্বর তৎপশ্চাৎ তাঁকে/তাঁদের মোক্ষ প্রদান করেন।]
मन्त्र विषय
বন্ধাৎ মোক্ষায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(যে) যে (গ্রাম্যাঃ) গ্রামে স্থিতিশীল, (বিশ্বরূপাঃ) সব বর্ণবিশিষ্ট (পশবঃ) জীব (বহুধা) প্রায়ঃ (বিরূপাঃ) পৃথক্-পৃথক্ রূপবিশিষ্ট (সন্তঃ) হয়ে (একরূপাঃ) এক স্বভাবযুক্ত হয়, (তান্) সেই (অগ্রে=অগ্রে বর্ত্তমানান্ পশূন্) অগ্রবর্ত্তী জীবদের (বায়ুঃ) সর্বব্যাপী বা বলদায়ক (দেবঃ) প্রকাশস্বরূপ, (প্রজাপতিঃ) প্রজাদের রক্ষক পরমেশ্বর (প্রজয়া) প্রজাদের সাথে (সংররাণঃ=সংরমমাণঃ) আনন্দ করে (প্র) উত্তমরূপে (মুমোক্তু) মুক্ত করেন/করুন॥৪॥
भावार्थ
যে (গ্রাম্যাঃ) একসাথে ভোজনকারী/সহভোক্তা/সহভোজী মনুষ্য ভিন্ন দেশ, ভিন্ন অন্ন, জল, বায়ু হওয়ায় ভিন্নবর্ণ হয়েও এক ঈশ্বরের আজ্ঞাপালনে (একরূপ) তৎপর থাকে, পরমেশ্বর প্রসন্ন হয়ে সেই পুরুষার্থী মহাত্মাদের দুঃখ থেকে মুক্ত করে সদা আনন্দ প্রদান করেন ॥৪॥ ২–শুদ্ধবায়ু সব প্রাণীদের শারীরিক ও আত্মিক সুখ প্রদান করে ॥৪॥
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