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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमा अथवा जङ्गिडः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    श॒णश्च॑ मा जङ्गि॒डश्च॒ विष्क॑न्धाद॒भि र॑क्षताम्। अर॑ण्याद॒न्य आभृ॑तः कृ॒ष्या अ॒न्यो रसे॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒ण: । च॒ । मा॒ । ज॒ङ्गि॒ड: । च॒ । विस्क॑न्धात् । अ॒भि । र॒क्ष॒ता॒म् । अर॑ण्यात् । अ॒न्य:। आऽभृ॑त: । कृ॒ष्या: । अ॒न्य: । रसे॑भ्य: ॥४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शणश्च मा जङ्गिडश्च विष्कन्धादभि रक्षताम्। अरण्यादन्य आभृतः कृष्या अन्यो रसेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शण: । च । मा । जङ्गिड: । च । विस्कन्धात् । अभि । रक्षताम् । अरण्यात् । अन्य:। आऽभृत: । कृष्या: । अन्य: । रसेभ्य: ॥४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (च) निश्चय करके (शणः) आत्मदान वा उद्योग, (च) और (जङ्गिडः) रोगभक्षक परमेश्वर वा औषध दोनों, (मा) मुझको (विष्कन्धात्) विघ्न से (अभि) सर्वथा (रक्षताम्) बचावें। (अन्यः) एक (अरण्यात्) तप के साधन वा विद्याभ्यास से और (अन्यः) दूसरा (कृष्याः) कर्षण अर्थात् खोजने से (रसेभ्यः) रसों अर्थात् पराक्रमों वा आनन्दों के लिये (आभृतः) लाया जाता है ॥५॥

    भावार्थ - आत्मदानी, उद्योगी, पथसेवी और परमेश्वर के विश्वासी पुरुष अपनी और सबकी रक्षा कर सकते हैं। वही योगीजन तपश्चर्या, विद्याभ्यास और खोज करने से आत्मदान [ध्यानशक्ति] और परमेश्वर में श्रद्धा प्राप्त करके अनेक सामर्थ्य और आनन्द का अनुभव करते हैं ॥५॥

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