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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमा अथवा जङ्गिडः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    कृ॑त्या॒दूषि॑र॒यं म॒णिरथो॑ अराति॒दूषिः॑। अथो॒ सह॑स्वान् जङ्गि॒डः प्र ण॒ आयुं॑षि तारिषत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒त्या॒ऽदूषि॑: । अ॒यम् । म॒णि: । अथो॒ इति॑ । अ॒रा॒ति॒ऽदूषि॑: । अथो॒ इति॑ । सह॑स्वान् । ज॒ङ्गि॒ड: । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृत्यादूषिरयं मणिरथो अरातिदूषिः। अथो सहस्वान् जङ्गिडः प्र ण आयुंषि तारिषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृत्याऽदूषि: । अयम् । मणि: । अथो इति । अरातिऽदूषि: । अथो इति । सहस्वान् । जङ्गिड: । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (अयम्) यह (मणिः) प्रशंसनीय पदार्थ (कृत्यादूषिः) पीड़ा देनेहारी विरुद्ध क्रियाओं में दोष लगानेवाला, (अथो) और भी (अरातिदूषिः) अदानशीलों [कंजूसों] में दोष लगानेवाला है। (अथो) और भी (सहस्वान्) वही महाबली (जङ्गिडः) रोगभक्षक परमेश्वर वा औषध (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को (प्र तारिषत्) बढ़तीवाला करे ॥६॥

    भावार्थ - जो कुचाली मनुष्य विरुद्ध मार्ग में चलते और सत्य पुरुषार्थों में आत्मदान अर्थात् ध्यान नहीं करते, वे ईश्वरनियम से महा दुःख उठाते हैं। सत्यपराक्रमी और पथ्यसेवी पुरुष उस महाबली परमेश्वर के गुणों के अनुभव से अपने जीवन को बढ़ाते हैं, अर्थात् संसार में अनेक प्रकार से उन्नति करके आनन्द भोगते और अपना जन्म सफल करते हैं ॥६॥

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