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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुराथर्वणः देवता - इन्द्रः छन्दः - निचृदुपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त

    इन्द्र॑ जु॒षस्व॒ प्र व॒हा या॑हि शूर॒ हरि॑भ्याम्। पिबा॑ सु॒तस्य॑ म॒तेरि॒ह म॒धोश्च॑का॒नश्चारु॒र्मदा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । जु॒षस्व॑ । प्र । व॒ह॒ । आ । या॒हि॒ । शू॒र॒ । हरि॑ऽभ्याम् । पिब॑ । सु॒तस्य॑ । म॒ते: । इ॒ह । मधो॑: । च॒का॒न: । चारु॑: । मदा॑य ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिभ्याम्। पिबा सुतस्य मतेरिह मधोश्चकानश्चारुर्मदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । जुषस्व । प्र । वह । आ । याहि । शूर । हरिऽभ्याम् । पिब । सुतस्य । मते: । इह । मधो: । चकान: । चारु: । मदाय ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले राजन् ! (जुषस्व) तू प्रसन्न हो, (प्र वह) आगे बढ़, (शूर) हे शूर ! (हरिभ्याम्) हरणशील दिन और रात अथवा प्राण और अपान के हित के लिये (आ याहि) तू आ। (चारुः) मनोहर स्वभाववाला, (मदाय) हर्ष के लिये (चकानः) तृप्त होता हुआ तू, (इह) यहाँ पर (मतेः) बुद्धिमान् पुरुष के (सुतस्य) निचोड़ के (मधोः) मधुर रस का (पिब) पान कर ॥१॥

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि सदा प्रसन्न रहकर उन्नति करे और करावे और सबके (हरिभ्याम्) दिन और रात अर्थात् समय को और प्राण और अपानवायु अर्थात् जीवन को परोपकार में लगावे और बुद्धिमानों के ज्ञान के सारांश [निचोड़] के रस का ग्रहण करके आनन्द भोगे ॥१॥ म० १–३, सामवेद उत्तरार्चिक प्रपाठक ३, अर्धप्रपाठक १ तृच २२ में कुछ भेद से हैं ॥

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