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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृगुराथर्वणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पुरोविराड्जगती सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त

    आ त्वा॑ विशन्तु सु॒तास॑ इन्द्र पृ॒णस्व॑ कु॒क्षी वि॒ड्ढि श॑क्र धि॒येह्या नः॑। श्रु॒धी हवं॒ गिरो॑ मे जुष॒स्वेन्द्र॑ स्व॒युग्भि॒र्मत्स्वे॒ह म॒हे रणा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । सु॒तास॑: । इ॒न्द्र॒: । पृ॒णस्व॑ । कु॒क्षी इति॑ । वि॒ड्ढि । श॒क्र॒ । धि॒या । इ॒हि॒ । आ । न॒: । श्रु॒धि । हव॑म् । गिर॑: । मे॒ । जु॒ष॒स्व॒ । आ । इ॒न्द्र॒ । स्व॒युक्ऽभि॑: । मत्स्व॑ । इ॒ह । म॒हे । रणा॑य ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा विशन्तु सुतास इन्द्र पृणस्व कुक्षी विड्ढि शक्र धियेह्या नः। श्रुधी हवं गिरो मे जुषस्वेन्द्र स्वयुग्भिर्मत्स्वेह महे रणाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । विशन्तु । सुतास: । इन्द्र: । पृणस्व । कुक्षी इति । विड्ढि । शक्र । धिया । इहि । आ । न: । श्रुधि । हवम् । गिर: । मे । जुषस्व । आ । इन्द्र । स्वयुक्ऽभि: । मत्स्व । इह । महे । रणाय ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे राजन् ! (सुतासः) यह निचोड़े हुए रस (त्वा) तुझमें (आ) यथाविधि (विशन्तु) प्रवेश करें, (कुक्षी) दोनों कुक्षियों को (पृणस्व) तू भर और (विड्ढि=विध) शासन कर, (शक्र) हे शक्तिमान् (धिया) [अपनी अनुग्रह] बुद्धि से (नः) हमारे पास (आ+इहि=एहि) आ। (हवम्) पुकार (श्रुधि) सुन, (इन्द्र) हे राजन् ! (मे) मेरी (गिरः) वाणियों को (जुषस्व) स्वीकार कर और (स्वयुग्भिः) अपनी युक्तियों से (इह) यहाँ पर (महे) बड़े (रणाय) रण [जीतने] के लिये (आ) यथानियम (मत्स्व) हर्षित हो ॥४॥

    भावार्थ - राजा अनेक श्रेष्ठ विद्याओं के रस से अपने आत्मा को सन्तुष्ट करे और न्यायपूर्वक प्रजा की रक्षा करता हुआ शत्रुओं को जीतकर आनन्द भोगे ॥४॥ सायणभाष्य में (विड्ढि) के स्थान में [वृड्ढि=वर्धय] है ॥

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