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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शापमोचन सूक्त

    दि॒वो मूल॒मव॑ततं पृथि॒व्या अध्युत्त॑तम्। तेन॑ स॒हस्र॑काण्डेन॒ परि॑ णः पाहि वि॒श्वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व: । मूल॑म् । अव॑ऽततम् । पृ॒थि॒व्या: । अधि॑ । उत्ऽत॑तम् । तेन॑ । स॒हस्र॑ऽकाण्डेन । परि॑ । न॒: । पा॒हि॒ । वि॒श्वत॑: ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो मूलमवततं पृथिव्या अध्युत्ततम्। तेन सहस्रकाण्डेन परि णः पाहि विश्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव: । मूलम् । अवऽततम् । पृथिव्या: । अधि । उत्ऽततम् । तेन । सहस्रऽकाण्डेन । परि । न: । पाहि । विश्वत: ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    जो (मूलम्) मूल [तत्त्वज्ञान] (दिवः) सूर्यलोक से (अवततम्) नीचे को फैला हुआ है और जो (पृथिव्याः अधि) पृथिवी पर से (उत्ततम्) ऊपर को फैला है। [हे ईश्वर !] (तेन) उस (सहस्रकाण्डेन) सहस्रों शाखावाले [तत्त्वज्ञान] के द्वारा (विश्वतः) सब प्रकार से (नः) हमारी (परि) सब ओर (पाहि) रक्षा कर ॥३॥

    भावार्थ - सूर्य द्वारा वृष्टि, प्रकाश आदि भूमि पर आते और भूमि से जल सूर्यलोक वा मेघमण्डल में जाता और सब छोटे-बड़े लोक परस्पर आकर्षण और धारण रखते हैं। इसी प्रकार ईश्वरीय अनन्त नियमों को देखकर सब प्रजागण राजनियमों में चलकर परस्पर उपकार करें ॥३॥

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