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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः छन्दः - विराडुपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - शापमोचन सूक्त

    श॒प्तार॑मेतु श॒पथो॒ यः सु॒हार्त्तेन॑ नः स॒ह। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणीमसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒प्तार॑म् । ए॒तु॒ । श॒पथ॑: । य: । सु॒ऽहार्त् । तेन॑ । न॒: । स॒ह । चक्षु॑:ऽमन्त्रस्य । दु॒:ऽहार्द॑: । पृ॒ष्टी: । अपि॑ । शृ॒णी॒म॒सि॒ ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शप्तारमेतु शपथो यः सुहार्त्तेन नः सह। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणीमसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शप्तारम् । एतु । शपथ: । य: । सुऽहार्त् । तेन । न: । सह । चक्षु:ऽमन्त्रस्य । दु:ऽहार्द: । पृष्टी: । अपि । शृणीमसि ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (शपथः) [हमारा] क्रोधवचन (शप्तारम्) कुवचन बोलनेवाले को (एतु) प्राप्त हो और (यः) जो (सुहार्त्) अनुकूल हृदयवाला [शुभचिन्तक] है। (तेन) उस [मित्र] के साथ (नः) हमारा (सह=सहवासः) सहवास हो। (चक्षुर्मन्त्रस्य) आँख से गुप्त बात करनेवाले, (दुर्हार्दः) दुष्टहृदयवाले पुरुष की (पृष्टीः) पसलियों को (अपि) ही (शृणीमसि=०–मः) हम तोड़ डालें ॥५॥

    भावार्थ - राजा को उचित है कि निन्दकों पर क्रोध और शुभचिन्तक सत्पुरुषों का आदर करे और जो अनिष्टचिन्तक कपटी छली हों, उनको भी दण्ड देता रहे ॥५॥ (चक्षुर्मन्त्रस्य) समासान्त पद को पदपाठ के विरुद्ध सायणाचार्य ने [मन्त्रस्य चक्षुः] दो पद मानकर व्याख्या की है, वह असाधु है। यह समस्त पद (दुर्हार्दः) पद का विशेषण है। इसका प्रयोग अ० १९।४५।१। में इस प्रकार है। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः पृ॒ष्टीरपि॑ शृणाञ्जन ॥ (अञ्जन) हे आँखें खोल देनेवाले ! तू आँख से गुप्त बात करनेवाले दुष्टहृदयवाले की पसलियाँ ही (शृण) तोड़ दे ॥

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