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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    दे॒वास्ते॑ ची॒तिम॑विदन्ब्र॒ह्माण॑ उ॒त वी॒रुधः॑। ची॒तिं ते॒ विश्वे॑ दे॒वा अवि॑द॒न्भूम्या॒मधि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । ते॒ । ची॒तिम् । अ॒वि॒द॒न् । ब्र॒ह्माण॑: । उ॒त । वी॒रुध॑: । ची॒तिम् । ते॒ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अवि॑दन् । भूम्या॑म् । अधि॑ ॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवास्ते चीतिमविदन्ब्रह्माण उत वीरुधः। चीतिं ते विश्वे देवा अविदन्भूम्यामधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । ते । चीतिम् । अविदन् । ब्रह्माण: । उत । वीरुध: । चीतिम् । ते । विश्वे । देवा: । अविदन् । भूम्याम् । अधि ॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य] (ते) तेरे लिये (देवाः) प्रकाशमान (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानियों ने (उत) और (वीरुधः) ओषधों ने (चीतिम्=चितिम्) ज्ञान (अविदन्) प्राप्त किया है। (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य पदार्थों [सूर्य, चन्द्र, वायु आदि] ने (ते) तेरे लिये (चीतिम्) चेतन्यता को (भूम्याम् अधि) पृथिवी के ऊपर (अविदन्) प्राप्त किया है ॥४॥

    भावार्थ - मनुष्य विद्वान् वेदवेत्ताओं के उपदेश से और अन्न आदि ओषधों और सूर्य, चन्द्र, वायु, जल, आकाश आदि दिव्य पदार्थों में ईश्वरीय अटल नियमों से शिक्षा और उपकार प्राप्त करके, ईश्वर की महिमा के ध्यान में निमग्न होकर और परोपकार करके आनन्द पाते हैं ॥४॥

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