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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 117

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 117/ मन्त्र 3
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११७

    बोधा॒ सु मे॑ मघव॒न्वाच॒मेमां याँ ते॒ वसि॑ष्ठो॒ अर्च॑ति॒ प्रश॑स्तिम्। इ॒मा ब्रह्म॑ सध॒मादे॑ जुषस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बोध॑ ।सु । मे॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । वाच॑म् । आ । इ॒माम् । याम् । ते॒ । वसि॑ष्ठ: । अर्च॑ति । प्रऽश॑स्तिम् ॥ इ॒मा । ब्रह्म॑ । स॒ध॒मादे॑ । जु॒ष॒स्व॒ ॥११७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बोधा सु मे मघवन्वाचमेमां याँ ते वसिष्ठो अर्चति प्रशस्तिम्। इमा ब्रह्म सधमादे जुषस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बोध ।सु । मे । मघऽवन् । वाचम् । आ । इमाम् । याम् । ते । वसिष्ठ: । अर्चति । प्रऽशस्तिम् ॥ इमा । ब्रह्म । सधमादे । जुषस्व ॥११७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 117; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (मघवन्) हे महाधनी राजन् ! (याम्) जिस (प्रशस्तिम्) उत्तम [वाणी] को (ते) तुझे (वसिष्ठः) वसिष्ठ [अति श्रेष्ठ विद्वान्] (अर्चति) समर्पण करता है, (मे) मेरी (इमाम्) इस (वाचम्) वाणी को, (सु) भले प्रकार (आ) सामने से (बोध) तू समझ, और (इमा) इन (ब्रह्म) वेदवचनों का (सधमादे) मिलकर हर्ष मनाने के स्थान उत्सव में (जुषस्व) सेवन कर ॥३॥

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि बड़े-बड़े विद्वानों की श्रेष्ठ वाणी और वेदवचनों को यथावत् मानकर उन्नति करे ॥३॥

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