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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 123

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 123/ मन्त्र 1
    सूक्त - कुत्सः देवता - सूर्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२३

    तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार। य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । सूर्य॑स्य । दे॒व॒ऽत्वम् । तत् । म॒हि॒ऽत्वम् । म॒ध्या । कर्तो॑: । विऽत॑तम् । सम् । ज॒भा॒र॒ ॥ य॒दा । इत् । अयु॑क्त । ह॒रित॑: । स॒धऽस्था॑त् । आत् । रात्री॑ । वास॑: । त॒नु॒ते॒ । सि॒मस्मै॑ ॥१२३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार। यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । सूर्यस्य । देवऽत्वम् । तत् । महिऽत्वम् । मध्या । कर्तो: । विऽततम् । सम् । जभार ॥ यदा । इत् । अयुक्त । हरित: । सधऽस्थात् । आत् । रात्री । वास: । तनुते । सिमस्मै ॥१२३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 123; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (तत्) उस [ब्रह्म] ने (सूर्यस्य) सूर्य के (मध्यः) बीच में (तत्) उस (विततम्) फैले हुए (देवत्वम्) प्रकाशपन को, (महित्वम्) बड़प्पन को और (कर्तोः) [आकर्षण आदि] कर्म को (सम् जभार) बटोरकर रख दिया है−कि (यदा इत्) जब ही वह [सूर्य] (हरितः) रस पहुँचानेवाली किरणों को (सधस्थात्) एक से स्थान से (अयुक्त) जोड़ता है, [आगे बढ़ाता है], (आत्) तभी (रात्री) रात्री (सिमस्मै) सबके लिये (वासः) वस्त्र [अन्धकार] (तनुते) फैलाती है ॥१॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने बहुत बड़े तेजस्वी, आकर्षक सूर्यलोक को बनाया है, और जो उस सूर्य और पृथिवी की गति से प्रकाश और रात्रि करके प्राणियों को कार्यकुशलता और विश्राम देता है, सब मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करें ॥१॥

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