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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 125

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 125/ मन्त्र 5
    सूक्त - सुर्कीतिः देवता - अश्विनीकुमारौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२५

    पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्दं॒सना॑भिः। यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒त्रम्ऽइ॑व । पि॒तरौ॑ । अ॒श्विना॑ । उ॒भा । इन्द्र॑ । आ॒वथ॑ । काव्यै॑: । दं॒सना॑भि: ॥ यत् । सु॒ऽराम॑म् । वि । अपि॑ब: । शची॑भि: । सर॑स्वती । त्वा॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥१२५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दंसनाभिः। यत्सुरामं व्यपिबः शचीभिः सरस्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुत्रम्ऽइव । पितरौ । अश्विना । उभा । इन्द्र । आवथ । काव्यै: । दंसनाभि: ॥ यत् । सुऽरामम् । वि । अपिब: । शचीभि: । सरस्वती । त्वा । मघऽवन् । अभिष्णक् ॥१२५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (पितरौ) माता-पिता (पुत्रम् इव) जैसे पुत्र को [वैसे] (अश्विना) कामों में व्यापक [सभापति और सेनापति] (उभा) तुम दोनों ने (काव्यैः) बुद्धिमानों के लिये व्यवहारों से और (दंसनाभिः) दर्शनीय क्रियाओं से [राज्य की] (आवथुः) रक्षा की है, और (मघवन्) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यत्) क्योंकि (सुरामम्) बड़े आनन्द देनेवाले [आनन्द रस] को (शचीभिः) अपनी बुद्धियों से (वि) विविध प्रकार (अपिबः) तूने पिया है, (सरस्वती) सरस्वती [विज्ञानयुक्त विद्या] ने (त्वा) तुझको (अभिष्णक्) सेवन किया है ॥॥

    भावार्थ - जब प्रजा और सेना के अधिकारी पूरी प्रीति से प्रजा की रक्षा करते हैं, और जब मुख्य सभापति राजा भी तत्त्व जाननेवाला होता है, उस राज्य में विद्या की वृद्धि होती है ॥॥

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