अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 125/ मन्त्र 5
ऋषिः - सुर्कीतिः
देवता - अश्विनीकुमारौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१२५
37
पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्दं॒सना॑भिः। यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒त्रम्ऽइ॑व । पि॒तरौ॑ । अ॒श्विना॑ । उ॒भा । इन्द्र॑ । आ॒वथ॑ । काव्यै॑: । दं॒सना॑भि: ॥ यत् । सु॒ऽराम॑म् । वि । अपि॑ब: । शची॑भि: । सर॑स्वती । त्वा॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥१२५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दंसनाभिः। यत्सुरामं व्यपिबः शचीभिः सरस्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥
स्वर रहित पद पाठपुत्रम्ऽइव । पितरौ । अश्विना । उभा । इन्द्र । आवथ । काव्यै: । दंसनाभि: ॥ यत् । सुऽरामम् । वि । अपिब: । शचीभि: । सरस्वती । त्वा । मघऽवन् । अभिष्णक् ॥१२५.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(पितरौ) माता-पिता (पुत्रम् इव) जैसे पुत्र को [वैसे] (अश्विना) कामों में व्यापक [सभापति और सेनापति] (उभा) तुम दोनों ने (काव्यैः) बुद्धिमानों के लिये व्यवहारों से और (दंसनाभिः) दर्शनीय क्रियाओं से [राज्य की] (आवथुः) रक्षा की है, और (मघवन्) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यत्) क्योंकि (सुरामम्) बड़े आनन्द देनेवाले [आनन्द रस] को (शचीभिः) अपनी बुद्धियों से (वि) विविध प्रकार (अपिबः) तूने पिया है, (सरस्वती) सरस्वती [विज्ञानयुक्त विद्या] ने (त्वा) तुझको (अभिष्णक्) सेवन किया है ॥॥
भावार्थ
जब प्रजा और सेना के अधिकारी पूरी प्रीति से प्रजा की रक्षा करते हैं, और जब मुख्य सभापति राजा भी तत्त्व जाननेवाला होता है, उस राज्य में विद्या की वृद्धि होती है ॥॥
टिप्पणी
−(पुत्रम्) सन्तानम् (इव) यथा (पितरौ) जननीजनकौ (अश्विना) कर्मसु व्यापकौ सभासेनेशौ (उभा) द्वौ (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (आवथुः) राज्यं रक्षितवन्तौ युवाम् (काव्यैः) कविभिर्मेधाविभिर्निर्मितैर्व्यवहारैः (दंसनाभिः) अथ० २०।७४।२। दर्शनीयाभिः क्रियाभिः (यत्) यतः (सुरामम्) म० ४। शोभनानन्दयितारम् (वि) विविधम् (अपिबः) पीतवानसि (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (सरस्वती) विज्ञानयुक्ता विद्या (त्वा) (मघवन्) महाधनिन् (अभिष्णक्) भिष्णज् उपसेवायां कण्ड्वादिः, लङ्, यको लुक् छान्दसः। उपसेवताम् ॥
विषय
काव्यैः-दंसनाभिः
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (पितरौ) = माता-पिता (पुत्रम्) = पुत्र को रक्षित करते हैं उसी प्रकार हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (उभा अश्विना) = ये दोनों प्राणापान (काव्यैः) = उत्तम ज्ञानों के द्वारा तथा (दंसनाभिः) = उत्तम कर्मों के द्वारा (अवथु:) = तेरा रक्षण करते हैं। प्राणापान हमारे लिए माता-पिता के समान हैं। इनके रक्षणों से हमारा ज्ञान बढ़ता है और हमारी प्रवृत्ति उत्तम कर्मों में होती है। २. यह सब कब होता है? (यत्) = जबकि हे (मघवन) = ऐश्वर्यशालिन्। तू (सुरामम्) = इस रमण के साधनाभूत उत्तम सोम को (व्यपिब) = विशेषरूप से पीनेवाला होता है। प्राणसाधना के द्वारा ही तो इस सोम का पान होता है। ऐसा होने पर सरस्वती यह ज्ञान की अधिष्ठातृ-देवता सरस्वती (शचीभिः) = प्रज्ञानों के द्वारा [नि०३.९] तथा उत्तम कर्मों के द्वारा [नि० २.१] (त्वा) = तुझे (अभिष्णक) = [भिष्ण सेवायाम्] सेवित करती है। सोम पान से ज्ञान बढ़ता है और उत्तम कर्मों में प्रवृत्ति होती है।
भावार्थ
प्राणसाधना से सोम-रक्षण होता है। सोम-रक्षण से ज्ञानवृद्धि व उत्तम कर्मों में अभिरुचि होती है।
भाषार्थ
(इव) जैसे (पितरौ) माता-पिता (पुत्रम्) पुत्र की (अवथुः) रक्षा करते हैं, वैसे (इन्द्र) हे सम्राट्! (उभा अश्विना) दोनों प्रधान-मन्त्री तथा प्रधान सेनापति (काव्यैः) कवि अर्थात् वेद के कवि परमेश्वर द्वारा प्रोक्त (दंसनाभिः) राष्ट्रिय-कर्मों द्वारा (अवथुः) आपकी रक्षा करते हैं। (यत्) जो आपने (शचीभिः) निज कर्त्तव्यों तथा बुद्धिमत्ता द्वारा (सुरामम्) उत्तम तथा रमणीय राष्ट्र को (व्यपिबः) जल पिलाया है, अर्थात् जलपान तथा कृषि आदि के लिए जल की विशेष व्यवस्था कर दी है। (मघवन्) हे सम्पत्तिशाली सम्राट्! (सरस्वती) सरस वेदवाणी (त्वा) आपको (अभिष्णक्) यथार्थ ज्ञान द्वारा स्नान कराती रहे, या आपके अज्ञान-रोग की चिकित्सा करती रहे।
विषय
राजा।
भावार्थ
और (यत्) जब (शचीभिः) अपनी प्रज्ञाओं और शक्तियों से (सुरामं) उत्तम रमण योग्य राष्ट्र का (व्यपिबः) नाना प्रकार से भोग करता है और हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् (सरस्वती) उत्तम ज्ञान से युक्त विद्वत् सभा (त्वा) तुझको (अभिष्णक्) पीड़ा रहित करती है (पितरौ पुत्रम् इव) माता और पिता जिस प्रकार पुत्र की रक्षा करते हैं उसी प्रकार (अश्विना) व्यापक विस्तृत अधिकारों से युक्त दो बड़े अधिकारी (काव्यैः) अपने उपदेशों से और (दंसनाभिः) दर्शनीय एवं शत्रु नाशक बड़े बड़े कर्मों से हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! तुझको (अवथुः) रक्षा करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कीर्ति र्ऋषिः। इन्द्रः, ४, ५ अश्विनौ च देवते। त्रिष्टुभः, ४ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
As parents support the child with all their power and potential, so O lord of power and glory, Indra, let the Ashvins, complementary powers of nature and society, men and women, scholars and scientists, leaders and followers, all support you with words of adoration and actions of profuse generosity when you defend the nation with bold actions and enjoy the peace, prosperity and power of the order, and may Sarasvati, divine intelligence, support and guide you.
Translation
O King, and premier, you both with intelligent acts and wonderful manners guard the kingdom O wealthy men, as you have drunk the gladdening juice of herbs with your power and wisdom, therefore, the scientific knowledge (Sarasvati) serves you.
Translation
O King, and premier, you both with intelligent acts and wonderful manners guard the kingdom. O wealthy men, as you have drunk the gladdening juice of herbs with your power and wisdom, therefore, the scientific knowledge (Sarasvati) serves you.
Translation
See Atharva, 7.91.92.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(पुत्रम्) सन्तानम् (इव) यथा (पितरौ) जननीजनकौ (अश्विना) कर्मसु व्यापकौ सभासेनेशौ (उभा) द्वौ (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (आवथुः) राज्यं रक्षितवन्तौ युवाम् (काव्यैः) कविभिर्मेधाविभिर्निर्मितैर्व्यवहारैः (दंसनाभिः) अथ० २०।७४।२। दर्शनीयाभिः क्रियाभिः (यत्) यतः (सुरामम्) म० ४। शोभनानन्दयितारम् (वि) विविधम् (अपिबः) पीतवानसि (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (सरस्वती) विज्ञानयुक्ता विद्या (त्वा) (मघवन्) महाधनिन् (अभिष्णक्) भिष्णज् उपसेवायां कण्ड्वादिः, लङ्, यको लुक् छान्दसः। उपसेवताम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(পিতরৌ) মাতা-পিতা (পুত্রম্ ইব) যেমন পুত্রের প্রতি [তেমনি] (অশ্বিনা) কর্মে ব্যাপক [সভাপতি এবং সেনাপতি] (উভা) তোমরা উভয়ই (কাব্যৈঃ) বুদ্ধিমানদের জন্য আচরণের দ্বারা এবং (দংসনাভিঃ) দর্শনীয় কাজের দ্বারা [রাজ্যের] (আবথুঃ) রক্ষা করো/করেছো, এবং (মঘবন্) হে মহাধনী (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [পরম্ ঐশ্বর্যবান রাজন্] (যৎ) যেহেতু (সুরামম্) পরম আনন্দ প্রদায়ীকে [আনন্দ রসকে] (শচীভিঃ) নিজের বুদ্ধি দ্বারা (বি) বিবিধ প্রকারে (অপিবঃ) তুমি পান করো/করেছো, (সরস্বতী) সরস্বতী [বিজ্ঞানযুক্ত বিদ্যা] (ত্বা) তোমাকে (অভিষ্ণক্) সেবন করে/করেছে॥৫॥
भावार्थ
যখন প্রজা ও সেনার কর্মকর্তারা পূর্ণ প্রেমে প্রজাদের রক্ষা করে এবং প্রধান সভাপতি রাজাও যখন তত্ত্ববেত্তা হয়, তখন সেই রাজ্যে জ্ঞানের বৃদ্ধি হয় ॥৫॥
भाषार्थ
(ইব) যেমন (পিতরৌ) মাতা-পিতা (পুত্রম্) পুত্রের (অবথুঃ) রক্ষা করে, তেমনই (ইন্দ্র) হে সম্রাট্! (উভা অশ্বিনা) উভয়ই প্রধান-মন্ত্রী তথা প্রধান সেনাপতি (কাব্যৈঃ) কবি অর্থাৎ বেদের কবি পরমেশ্বর দ্বারা প্রোক্ত (দংসনাভিঃ) রাষ্ট্রীয়-কর্ম দ্বারা (অবথুঃ) আপনার রক্ষা করে। (যৎ) যে আপনি (শচীভিঃ) নিজ কর্ত্তব্য তথা বুদ্ধিমত্তা দ্বারা (সুরামম্) উত্তম তথা রমণীয় রাষ্ট্রকে (ব্যপিবঃ) জল পান করিয়েছ, অর্থাৎ জলপান তথা কৃষি আদির জন্য জলের বিশেষ ব্যবস্থা করেছো। (মঘবন্) হে সম্পত্তিশালী সম্রাট্! (সরস্বতী) সরস বেদবাণী (ত্বা) আপনাকে (অভিষ্ণক্) যথার্থ জ্ঞান দ্বারা স্নান করাতে থাকুক, বা আপনার অজ্ঞান-রোগের চিকিৎসা করতে থাকুক।
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