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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 125 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 125/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सुर्कीतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२५
    36

    कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित् । अ॒ङ्ग । यव॑ऽमन्त: । यव॑म् । चि॒त् । यथा॑ । दान्ति॑ । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । वि॒ऽयूथ॑ ॥ इ॒हऽइ॑ह । ए॒षा॒म् । कृ॒णु॒हि॒ । भोज॑नानि । ये । ब॒र्हिष॑: । नम॑:ऽवृक्तिम् । न । ज॒ग्मु: ॥१२५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय। इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित् । अङ्ग । यवऽमन्त: । यवम् । चित् । यथा । दान्ति । अनुऽपूर्वम् । विऽयूथ ॥ इहऽइह । एषाम् । कृणुहि । भोजनानि । ये । बर्हिष: । नम:ऽवृक्तिम् । न । जग्मु: ॥१२५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अङ्ग) हे [राजन् !] (यवमन्तः) जौ आदि धान्यवाले [किसान लोग] (यथा चित्) जैसे ही (यवम्) जौ आदि धान्य को (अनुपूर्वम्) क्रम से (वियूय) अलग-अलग करके (कुवित्) बहुत प्रकार (दान्ति) काटते हैं। (इहेह) इस-इस [व्यवहार] में (एषाम्) उन [लोगों] के (भोजनानि) भोजनों और धनों को (कृणुहि) कर, (ये) जिन (बर्हिषः) बढ़ती करते हुए लोगों ने (नमोवृक्तिम्) सत्कार के त्याग को (न) नहीं (जग्मुः) पाया है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे चतुर किसान जौ गेहूँ आदि धान्य को काटकर उनकी जाति और पकने के अनुसार एकत्र करते हैं, वैसे ही राजा आज्ञाकारी कर्मकुशल प्रजागणों को उनकी योग्यता के अनुसार भोजन और धन आदि दान करे ॥२॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में भी है-१०।३२; १९।६; तथा २३।३८ ॥ २−(कुवित्) बहुलम् (अङ्ग) हे (यवमन्तः) यवादिधान्ययुक्ताः कर्षकाः (यवम्) यवादिकम् (चित्) एव (यथा) (दान्ति) लुनन्ति (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम्। धान्यानां जातिपाकक्रमेण (वियूय) पृथक्कृत्य (इहेह) अस्मिन्नस्मिन् व्यवहारे (एषाम्) पुरुषाणाम् (कृणुहि) कुरु (भोजनानि) भोगसाधनानि खाद्यानि धनानि च (ये) पुरुषाः (बर्हिषः) वृद्धिकराः (नमोवृक्तिम्) वृजी वर्जने-क्त। नमस्कारस्य सत्कारस्य वर्जनं त्यागकरणम् (न) निषेधे (जग्मुः) प्रापुः ॥

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    विषय

    वासनाशून्य हृदय में प्रभु-भजन

    पदार्थ

    १. हे (अङ्ग) = प्रिय! (यथा) = जैसे (यवमन्तः) = जौ-वाले-जौ की कृषि करनेवाले (चित्) = निश्चय से (यवम्) = जी को (पूर्वम्) = क्रमश: (वियूय) = पृथक्-पृथक् करके (कुवित्) = खूब ही (दान्ति) = काट डालते हैं। इसी प्रकार (ये) = जो व्यक्ति अपने हृदय-क्षेत्र से वासनाओं को उखाड़ डालते हैं और वासनाशून्य (बर्हिषः) = जिसमें से वासनाओं का उद्बहण कर दिया गया है, उस हृदय में (नमःवृक्तिम्) = नमस्कार के वर्जन को (न जग्मुः) = नहीं प्राप्त होते हैं, अर्थात् जो अपने हृदयों को वासनाशून्य बनाते हैं और उन हृदयों में सदा प्रभु के प्रति नमन की भावना को धारण करते हैं, (एषाम्) = इनके (इह इह) = इस-इस स्थान पर, अर्थात् जब-जब आवश्यकता पड़े (भोजननानि) = पालन के साधनभूत भोग्य पदार्थों को प्राप्त कराइए। २. मनुष्य का कर्तव्य यह है कि एक-एक करके वासनाओं को विनष्ट करनेवाला हो। वासनाशून्य हृदय में प्रभु को नमन करे। प्रभु इसको योगक्षेम प्राप्त कराते ही हैं।

    भावार्थ

    मनुष्य वासनाओं का उद्बर्हण करके वासनाशून्य हृदय में प्रभु के प्रति नमनवाला होता है तो प्रभु उसके योगक्षेम की स्वयं व्यवस्था करते हैं।

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    भाषार्थ

    (अङ्ग) हे प्रिय सम्राट्! (यथा) जिस तरह (यवमन्तः) जौ आदि के खेतों के स्वामी (वियूय) मिलकर (अनुपूर्वम्) क्रमशः (कुवित्) बहुमात्रा में (यवं चित्) जौ आदि को (दान्ति) काट लेते हैं, (ये) और जो (बर्हिषः) कटे (नमः) अन्न के दान का (वृक्तिम्) वर्जन (न जग्मुः) नहीं करते, अर्थात् जो “कर-रूप” में अन्न का प्रदान राष्ट्र के लिए करते रहते हैं, (एषाम्) ऐसे लोगों के (भोजनानि) भोजनों की व्यवस्था आप (इह-इह) राष्ट्र में सर्वत्र (कृणुहि) कीजिए। [अर्थात् जो कटे-अन्न का नियत अंश, कर-रूप में प्रदान नहीं करते, उनकी भोज्य-सामग्री का आप अपहरण कर लें।]

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    विषय

    राजा।

    भावार्थ

    (अङ्ग) हे इन्द्र ! (यवमन्तः) जौ आदि धान्यों के पैदा करने वाले खेतीहर लोग (यथा) जिस जिस प्रकार के (यवं चित्) जौ आदि धान्य को (अनुपूर्वम्) क्रम से (वियूय) जुदा कर कर के (कुवित्) बहुतसा (दान्ति) काट लेते हैं उस उस प्रकार के तू (इह इह) नाना प्रदेशों में भी (एषाम्) उन लोगों के यवादि नये धान्यों के (भोजनानि) भोजनों को (कृणुहि) कर (ये) जो (बर्हिषः) यज्ञमय प्रजापालक राजा या इस राष्ट्र के (नमोवृक्तिं) नमनकारी बल या दण्ड व्यवस्था या शासन के भंग के अपराध को (न जग्मुः) नहीं करते। अथवा (बर्हिषः) उस महान् ब्रह्म परमेश्वर के (नमो वृक्तिम् न जग्मुः) नमस्कार, या पूजा में विच्छेद नहीं करते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कीर्ति र्ऋषिः। इन्द्रः, ४, ५ अश्विनौ च देवते। त्रिष्टुभः, ४ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Well then, just as master farmers of grain harvest the crop in order and separate the grain from the chaff, so, dear lord, here, there, everywhere, in order, create and provide food and sustenance for those who never neglect yajnic offerings but bear the holy grass and bring homage to the vedi.

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    Translation

    O King, As the men having their fields full of barley reap the ripe corn removing it in order to bring the good of those men who growing ever do no have the discipline of resignation.

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    Translation

    O King, As the men having their fields full of barley reap the ripe corn removing it in order to bring the good of those men who growing ever do no have the discipline of resignation.

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    Translation

    As the destination cannot be reached in time by going on a one-horsed vehicle, nor can glory be achieved by going, by the same transport, to wars or assemblies. The learned and the wise persons, desirous of the wealth of cows, horses, foodgrains, power, knowledge and riches, choose the Fortune-showering Lord as their friend.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में भी है-१०।३२; १९।६; तथा २३।३८ ॥ २−(कुवित्) बहुलम् (अङ्ग) हे (यवमन्तः) यवादिधान्ययुक्ताः कर्षकाः (यवम्) यवादिकम् (चित्) एव (यथा) (दान्ति) लुनन्ति (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम्। धान्यानां जातिपाकक्रमेण (वियूय) पृथक्कृत्य (इहेह) अस्मिन्नस्मिन् व्यवहारे (एषाम्) पुरुषाणाम् (कृणुहि) कुरु (भोजनानि) भोगसाधनानि खाद्यानि धनानि च (ये) पुरुषाः (बर्हिषः) वृद्धिकराः (नमोवृक्तिम्) वृजी वर्जने-क्त। नमस्कारस्य सत्कारस्य वर्जनं त्यागकरणम् (न) निषेधे (जग्मुः) प्रापुः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অঙ্গ) হে [রাজন্!] (যবমন্তঃ) যব আদি শস্যযুক্ত [কৃষক] (যথা চিৎ) যেমনই (যবম্) যব আদি শস্য (অনুপূর্বম্) ক্রমানুসারে (বিয়ূয়) পৃথক-পৃথকভাবে (কুবিৎ) বহু প্রকারে (দান্তি) কাটে/কর্তন করে। (ইহেহ) এই-এই [ব্যবহারে] (এষাম্) তাঁদের [লোকদের] (ভোজনানি) খাদ্য/ভোজন এবং অর্থ (কৃণুহি) করো, (যে) যে (বর্হিষঃ) বৃদ্ধি করতে থাকা/বৃদ্ধিকারক/প্রগতিশীল লোকেরা (নমোবৃক্তিম্) সৎকারের ত্যাগ (ন) না (জগ্মুঃ) প্রাপ্ত করে/করেছে ॥২॥

    भावार्थ

    বুদ্ধিমান কৃষক যেমন যব, গম প্রভৃতি শস্য বর্ণ ও পরিপক্বতা অনুসারে কেটে সংগ্রহ করে, তেমনই রাজার উচিত, আজ্ঞাবহ পরিশ্রমী প্রজাদের সামর্থ্য অনুযায়ী খাদ্য ও অর্থ ইত্যাদি দান করা॥২॥ এ মন্ত্র কিছু ভেদপূর্বক যজুর্বেদেও আছে-১০।৩২; ১৯।৬; তথা ২৩।৩৮ ॥

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    भाषार्थ

    (অঙ্গ) হে প্রিয় সম্রাট্! (যথা) যেরূপ (যবমন্তঃ) যবাদির খেতের স্বামী (বিয়ূয়) মিলে (অনুপূর্বম্) ক্রমশঃ (কুবিৎ) বহুমাত্রায় (যবং চিৎ) যবাদিকে (দান্তি) কেটে নেয়, (যে) এবং যে (বর্হিষঃ) কর্তিত (নমঃ) অন্ন দানের (বৃক্তিম্) বর্জন (ন জগ্মুঃ) না করে, অর্থাৎ যে “কর-রূপ” এ অন্নের প্রদান রাষ্ট্রের জন্য করতে থাকে, (এষাম্) এমন লোকেদের (ভোজনানি) ভোজনের ব্যবস্থা আপনি (ইহ-ইহ) রাষ্ট্রে সর্বত্র (কৃণুহি) করুন। [অর্থাৎ যারা কাটা-অন্নের নিয়ত অংশ, কর-রূপে প্রদান করে না, তাঁদের ভোজ্য-সামগ্রী আপনি অপহরণ করুন।]

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