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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 125 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 125/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुर्कीतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२५
    31

    न॒हि स्थूर्यृ॑तु॒था या॒तम॑स्ति॒ नोत श्रवो॑ विविदे संग॒मेषु॑। ग॒व्यन्त॒ इन्द्रं॑ स॒ख्याय॒ विप्रा॑ अश्वा॒यन्तो॒ वृष॑णं वा॒जय॑न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । स्थूरि॑ । ऋ॒तु॒ऽथा । या॒तम् । अस्ति॑ । न । उ॒त । श्रव॑: । वि॒वि॒दे॒ । स॒म्ऽग॒मेषु॑ ॥ ग॒व्यन्त॑: । इन्द्र॑म् । स॒ख्याय॑ । विप्रा॑: । अ॒श्व॒ऽयन्त॑: । वृष॑णम् । वा॒जय॑न्त: ॥१२५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु। गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । स्थूरि । ऋतुऽथा । यातम् । अस्ति । न । उत । श्रव: । विविदे । सम्ऽगमेषु ॥ गव्यन्त: । इन्द्रम् । सख्याय । विप्रा: । अश्वऽयन्त: । वृषणम् । वाजयन्त: ॥१२५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्थूरि) ठहरा हुआ [ढीला] काम (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार [ठीक समय पर] (यातम्) पाया हुआ (नहि) नहीं (अस्ति) होता है, (उत) और [इसी कारण] (संगमेषु) समाजों [वा संग्रामों] में (श्रवः) यश (न) नहीं (विविदे) मिलता है, (सख्याय) मित्रता के लिये (वृषणम्) बलवान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (वाजयन्तः) वेगवान् बनाते हुए (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (गव्यन्तः) भूमि चाहते हुए और (अश्वायन्तः) घोड़े चाहते हुए हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य कार्य आरम्भ करके आलस के मारे छोड़ देता है, वह यश नहीं पाता है, इसलिये वह विद्वानों से शिक्षा पाकर राज्य आदि कामों को पुरुषार्थ से चलावे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(नहि) न कदापि (स्थूरि) स्थः किच्च। उ० ।४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-ऊरन्। गतिशून्यं प्रवृत्तिरहितं कर्म (ऋतुथा) ऋतौ। निश्चितसमये (यातम्) प्राप्तं समाप्तम् (अस्ति) (न) निषेधे (उत) अपि (श्रवः) यशः (विविदे) लडर्थे लिट्। लभ्यते प्राप्यते (संगमेषु) समाजेषु। संग्रामेषु (गव्यन्तः) भूमिमिच्छन्तः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (सख्याय) सखिकर्मणे (विप्राः) मेधाविनः (अश्वायन्तः) तुरगानिच्छन्तः (वृषणम्) बलवन्तम् (वाजयन्तः) वेगवन्तं कुर्वन्तः ॥

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    विषय

    प्रभु की मित्रता में

    पदार्थ

    १. (स्थूरि) = [अव]-एक बैल से युक्त शकट (ऋतुथा) = समय पर (यातम्) = उद्दिष्ट स्थान पर प्राप्त (नहि अस्ति) = नहीं होता है, इसी प्रकार उस प्रभु के बिना अकेला जीव अपने शरीर-रथ को उद्दिष्ट स्थान पर नहीं ले-जा सकता। सम्पूर्ण सफलता प्रभु से प्राप्त शक्ति पर ही निर्भर करती है। २. यह प्रभु को विस्मृत करनेवाला व्यक्ति (संगमेषु) = सभाओं में उपस्थित न होकर (श्रवः) = ज्ञान को (न विविदे) = नहीं प्राप्त करता है। यह व्यक्ति भोगप्रवण होकर ज्ञानरुचिवाला नहीं रहता, इसलिए (गव्यन्तः) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों की कामना करते हुए (अश्वायन्तः) = उत्तम कर्मेन्द्रियों की कामना करते हुए (वाजयन्त:) = शक्ति की कामना करते हुए (विप्रा:) = ज्ञानी पुरुष (इन्द्रम्) = उस प्रभु को ही (सख्याय) = मित्रता के लिए चाहते हैं। प्रभु की मित्रता में ही मनुष्य अपने शरीर-रथ को लक्ष्य की ओर ले-चलता है। उसकी इन्द्रियाँ सशक्त बनती है। अंग-प्रत्यंग की शक्ति स्थिर रहती है।

    भावार्थ

    प्रभु की मित्रता में मनुष्य मार्गभ्रष्ट न होकर अपने ज्ञान व बल का वर्धन करता हुआ लक्ष्य-स्थान पर पहुँचता है।

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    भाषार्थ

    (स्थूरि=स्थूरी) बैलजुता हल (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार, यदि खेतों में (नहि) नहीं (यातम् अस्ति) चलता, तो अन्न के अभाव से (संगमेषु) सामाजिक-मेलनों में, या युद्धों के निमित्त, (श्रवः) अन्न-सामग्री (न विविदे) नहीं प्राप्त होती। (गव्यन्तः) गौएँ चाहते हुए, और (अश्वायन्तः) अश्व चाहते हुए हम (विप्राः) मेधावी प्रजाजन या किसान (सख्याय) राजा और प्रजा में परस्पर सखिभाव को बनाए रखने के लिए, (वृषणम्) जलों की वर्षा करनेवाले, प्रभूत जल की व्यवस्था करनेवाले (इन्द्रम्) सम्राट् को (वाजयन्तः) अन्नों और बलों से सम्पन्न करना चाहते हैं।

    टिप्पणी

    [स्थूरः= BULL (आप्टे)। वाजः=अन्नम् (निघं০ २.७); बलम् (निघं০ २.९)। विना खेती के न गौएँ मिल सकती हैं, न अश्व। वृषणम्=यज्ञों और नहरों आदि द्वारा जल-सेचन का प्रबन्ध करनेवाला सम्राट्।]

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    विषय

    राजा।

    भावार्थ

    (स्थूरि) एक बैल या एक घोड़े वाली गाड़ी या रथ से (ऋतुथा) ठीक ठीक काल में, ठीक ठीक अवसर पर (नहि यातम् अस्ति) नहीं पहुंचा जा सकता। (न उत) और न (संगमेषु) सज्जनों के सभा सत्संगों में (अवः) यश ही प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् एक घोड़े के रथ से समयपर युद्ध में नहीं पहुंचा जा सकता और न संग्राम में विजय, यश ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिये (विप्राः) मेधावी विद्वान् पुरुष (गव्यन्तः) गौओं के इच्छुक (अश्वायन्तः) अश्वों के इच्छुक (वाजयन्तः) और अन धनैश्वर्य के इच्छुक होकर (इन्द्रम् वृष्णं) ऐश्वर्यवान् बलशाली राजा और परमेश्वर को ही (सख्याय) अपने मित्र होने के लिये वरण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कीर्ति र्ऋषिः। इन्द्रः, ४, ५ अश्विनौ च देवते। त्रिष्टुभः, ४ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    A one horse cart never reaches the destination on time according to season and purpose, nor, in battle, supplies are received on time without the favour of Indra. Therefore nobles and sages well desirous of cows and horses, seeking success and victory, pray for the favour and friendship of the generous and virile Indra.

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    Translation

    The work in lingering pendency does not become finished in its fixed season or time and for this reason the credit is not attained. The enlightened Persons desiring herds of kine and horses remain strengthening the king for his friendship.

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    Translation

    The work in fingering pendency does not become finished in its fixed season or time and for this reason the credit is not attained. The enlightened persons desiring herds of kine and horses remain strengthening the king for his friendship.

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    Translation

    O strong and active officers of both the departments, civil and military, unanimously acting in the annihilation of the wicked person or the enemy, who is not fit to be forsaken or forgiven, being the defender of good action sand protecting the nation, well-equipped with fortunes in various ways and actions, both of you should protect this great king in all affairs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(नहि) न कदापि (स्थूरि) स्थः किच्च। उ० ।४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-ऊरन्। गतिशून्यं प्रवृत्तिरहितं कर्म (ऋतुथा) ऋतौ। निश्चितसमये (यातम्) प्राप्तं समाप्तम् (अस्ति) (न) निषेधे (उत) अपि (श्रवः) यशः (विविदे) लडर्थे लिट्। लभ्यते प्राप्यते (संगमेषु) समाजेषु। संग्रामेषु (गव्यन्तः) भूमिमिच्छन्तः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (सख्याय) सखिकर्मणे (विप्राः) मेधाविनः (अश्वायन्तः) तुरगानिच्छन्तः (वृषणम्) बलवन्तम् (वाजयन्तः) वेगवन्तं कुर्वन्तः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (স্থূরি) গতিশূন্য/স্থবির [অলস] কর্ম (ঋতুথা) ঋতু অনুসারে [সঠিক সময়ে] (যাতম্) প্রাপ্ত (নহি) না (অস্তি) হয়, (উত) এবং [এই কারণে] (সঙ্গমেষু) সমাজে [বা সংগ্রামে] (শ্রবঃ) যশ (ন) না (বিবিদে) লাভ/প্রাপ্তি হয়, (সখ্যায়) মিত্রতার জন্য (বৃষণম্) শক্তিশালী (ইন্দ্রম্) ইন্দ্রকে [মহা ঐশ্বর্যবান রাজাকে] (বাজয়ন্তঃ) বেগবান করে (বিপ্রাঃ) বুদ্ধিমানগণ (গব্যন্তঃ) ভূমি কামনা করে এবং (অশ্বায়ন্তঃ) ঘোড়া কামনা করে॥৩॥

    भावार्थ

    যে ব্যক্তি কাজ শুরু করে অলসতার কারণে তা ত্যাগ করে, সে খ্যাতি পায় না, তাই সে বিদ্বানদের কাছ থেকে শিক্ষা গ্রহণ করে প্রচেষ্টার দ্বারা রাষ্ট্র ইত্যাদির কাজ চালনা করুক॥৩॥

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    भाषार्थ

    (স্থূরি=স্থূরী) বলদের লাঙল (ঋতুথা) ঋতু অনুসারে, যদি কৃষিজমিতে (নহি) না (যাতম্ অস্তি) চলে, তবে অন্নের অভাবে (সঙ্গমেষু) সামাজিক-মিলনে, বা যুদ্ধের নিমিত্ত, (শ্রবঃ) অন্ন-সামগ্রী (ন বিবিদে) না প্রাপ্ত হয়। (গব্যন্তঃ) গাভী কামনাকারী, এবং (অশ্বায়ন্তঃ) অশ্ব কামনাকারী আমরা (বিপ্রাঃ) মেধাবী প্রজাগণ বা কৃষক (সখ্যায়) রাজা এবং প্রজাদের মধ্যে পরস্পর সখীভাব বজায় রাখার জন্য, (বৃষণম্) জলের বর্ষণকারী, প্রভূত জলের ব্যবস্থাকারী (ইন্দ্রম্) সম্রাটকে (বাজয়ন্তঃ) অন্ন এবং বল দ্বারা সম্পন্ন করতে চাই।

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