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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 139

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 4
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त १३९

    अ॒यं वां॑ घ॒र्मो अ॑श्विना॒ स्तोमे॑न॒ परि॑ षिच्यते। अ॒यं सोमो॒ मधु॑मान्वाजिनीवसू॒ येन॑ वृ॒त्रं चि॑केतथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । वा॒म् । घ॒र्म: । अ॒श्वि॒ना॒ । स्तोमे॑न । परि॑ । सि॒च्य॒ते॒ ॥ अ॒यम् । सोम॑: । मधु॑ऽमान् । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । येन॑ । वृ॒त्रम् । चिके॑तथ: ॥१३९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं वां घर्मो अश्विना स्तोमेन परि षिच्यते। अयं सोमो मधुमान्वाजिनीवसू येन वृत्रं चिकेतथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । वाम् । घर्म: । अश्विना । स्तोमेन । परि । सिच्यते ॥ अयम् । सोम: । मधुऽमान् । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । येन । वृत्रम् । चिकेतथ: ॥१३९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर माता-पिता, गुरुजनो] (वाम्) तुम दोनों का (अयम्) यह (घर्मः) पसीना (स्तोमेन) स्तुतियोग्य कर्म के साथ (परि सिच्यते) सिंचता है [बहता है], (वाजिनीवसू) हे बहुत वेगवाली वा बहुत अन्नवाली क्रियाओं में निवास करनेवाले दोनों ! (अयम्) वह [पसीना] (मधुमान्) उत्तम ज्ञानवाला (सोमः) सोम [तत्त्व रस] है, (येन) जिस [तत्त्व रस] से (वृत्रम्) रोकनेवाले शत्रु को (चिकेतथः) तुम दोनों जान लेते हो ॥४॥

    भावार्थ - गुरुजन महान् परिश्रम करके मधुविद्या अर्थात् तत्त्वज्ञान को प्राप्त करें और शत्रुओं को मारें ॥४॥

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